राजस्थान का मध्यकालीन इतिहास

आमतौर पर मध्यकाल का तात्पर्य भारत के इतिहास के संदर्भ में 1200-1707 ई. का कालखंड लिया जाता है। राजस्थान के इतिहास में राजपूतों की उत्पत्ति को एक महत्त्वपूर्ण घटना माना जाता है जिसने राजस्थान के इतिहास को गहराई से प्रभावित किया है, अतः हम भी राजस्थान के मध्यकालीन इतिहास को इसी घटना के साथ पढ़ना प्रारम्भ करेंगे-
• हर्षवर्धन की मृत्यु (647 ई.) के उपरान्त भारत की राजनीतिक एकता पुनः छिन्न-भिन्न हो गई।
• इस युग में किसी ताकतवर केन्द्रीय सत्ता के अभाव में विकेन्द्रीयकरण की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिला, जिसके परिणामस्वरुप भारत पुनः छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त हो गया। इन छोटे-छोटे राज्यों के जो शासक थे, यद्यपि उनके वंश तो अलग-अलग पर इन्हें एक जाति के रूप में राजपूत कहा गया।
• इन्हीं राजपूत राजवंशों के युग को भारतीय इतिहास में ‘राजपूत युग’ की संज्ञा दी गई है। यह काल 7 वीं शताब्दी ई. से 12वीं शताब्दी तक रहा था।
राजपूतों की उत्पत्ति सम्बन्धी विभिन्न मत –
• राजपूतों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में विद्वानों ने जो विभिन्न मत प्रतिपादित किये हैं उन्हें चार वर्गों में विभाजित किया जा सकता हैं
(1) अग्निकुण्ड से उत्पत्ति या अग्निवंशीय मत
(2) भारतीय आर्यों से उत्पत्ति सम्बंधी मत
(3) विदेशियों व अनार्यों से उत्पत्ति सम्बन्धी मत
(4) मिश्रित जातियों से उत्पत्ति सम्बन्धी मत।
(1) अग्निकुण्ड से उत्पत्ति या अग्निवंशीय मत – इस मत का आधार है, चंदरबरदाई द्वारा रचित ग्रंथ ‘पृथ्वीराज रासो’ में उल्लेखित एक कथा, इस कैथा के अनुसार आबू पर्वत पर रहने वाले ऋषियों के यज्ञ को राक्षस माँस, हड्डियाँ, मल-मूत्र आदि डालकर अपवित्र कर देते थे।
• इनसे परेशान होकर वशिष्ठ मुनि ने इन राक्षसों को नष्ट करने के लिये आबू पर्वत पर एक अग्निकुण्ड का निर्माण करके यज्ञ किया और यज्ञ अग्नि से तीन यौद्धा – परमार, चालुक्य और प्रतिहार उत्पन्न किये।
किन्तु जब ये तीन योद्धा भी राक्षसों से ऋषियों की रक्षा न कर सके तो वशिष्ठ ने हथियारों से सुसज्जित एक चौथा यौद्धा चौहान उत्पन्न किया जिसने राक्षसों का नाशकर शांति स्थापित की।
ऐसी मान्यता है कि भारत के राजपूत इन्हीं चारों यौद्धाओं के वंशज हैं। चूंकि इनकी उत्पत्ति अग्निकुण्ड से हुई थी अतः इन्हें अग्निवंशीय कहा जाता है।
• डॉ. जगदीश सिंह गहलोत ने इस कथा को ‘पृथ्वीराज रासो’ के रचयिता की दिमाग की उपज माना है। डॉ. गोपीनाथ शर्मा भी इसे ‘केवल मात्र कवियों की मानसिक कल्पना का फल मानते हैं।
सी. वी. वैद्य ने इस कथा को ‘कवि कल्पना’ माना है और डॉ. दशरथ शर्मा ने इसे ‘भाटों की कल्पना की उपज मात्र’ कहा है यद्यपि सूर्यमल्ल मिश्रण (मीसण), मुहणोत नैणसी, जोधराज जैसे विद्वान इस कथा की सत्यता में विश्वास करते है।
• बेदला के चौहानों के सीसाना अभिलेख, जोधराज कृत हमीर रासो, नैणसी की ख्यात तथा मैनपुरी के चौहानों के इतिहास (चौहान चन्द्रिका) आदि में भी अग्निकुण्ड उत्पत्ति सम्बन्धी कथा का वर्णन विद्यमान है।
•यह भी उल्लेखनीय है कि चंदर बरदाई ने अपने ग्रंथ में 36 राजपूत शाखाओं का वर्णन किया है।
2) आर्यों और विशुद्ध क्षत्रियों से उत्पत्ति सम्बन्धी सिद्धान्त –
इस मत को हम दो भागों में बांट कर पढ़ सकते है
i) क्षत्रिय सूर्य वंशी और चंद्रवंशीय मत
• जी. एच. ओझा, डॉ. दशरथ शर्मा, सी.वी. वैद्य और डॉ. जगदीश सिंह गहलोत का मत है कि राजपूत प्राचीन भारतीय क्षत्रियों की सूर्यवंशी और चन्द्रवंशी शाखाओं के ही वंशज हैं।
• प. ओझा के अनुसार वर्तमान राजपूतों के विभिन्न राजवंश वैदिक और पौराणिक काल में राजन्य, क्षत्रिय, उग्र आदि नामों से प्रसिद्ध सूर्य व चन्द्रवंशी क्षत्रियों की ही सन्तानें हैं।
• ओझा ने अपने मत की पुष्टि के लिये कुछ ऐसे अभिलेखीय और साहित्यिक साक्ष्यों को पेश किया है जिसमें राजपूतों के विभिन्न वंशों को सूर्यवंशी और चन्द्रवंशी क्षत्रिय कहा गया है उनमें से प्रमुख इस प्रकार हैं –
(1) 971 ई. के नाथ अभिलेख, 977 ई. के आटपुर लेख, 1285 ई. के आँबू शिलालेख तथा 1428 ई. के श्रृंगी ऋषि के लेख में गुहिलवंशी राजपूतों को रघुकुल (सूर्यवंश) से उत्पन्न बताया गया हैं।
(2) भोज के ग्वालियर अभिलेख तथा बाउक के जोधपुर अभिलेख में प्रतिहारों को राम के भाई लक्ष्मण का वंशज अर्थात् सूर्यवंशी क्षत्रिय बताया गया है।
(3) चन्देल अभिलेखों के अनुसार चन्देल चन्द्रवंशी क्षत्रिय थे।
4) हरसोल अभिलेख के अनुसार परमार राजपूत क्षत्रिय थे।
(5) 1230 ई. के तेजपाल मन्दिर के शिलालेख के अनुसार धुम्रपाल और परमाल शासक सूर्यवंशी क्षत्रिय थे।
(6) सीकर जिले में हर्ष नाथ मन्दिर से मिले शिलालेख के अनुसार चौहानों के पूर्वज सूर्यवंशी थे।
(7) जालौर व नाडौल से प्राप्त तेरहवीं शताब्दी के शिलालेखों में राठौड़ों को सूर्यवंशी क्षत्रिय बताया गया है।
(8) ‘पृथ्वीराज विजय’, ‘हम्मीर महाकाव्य’, ‘सुजान चरित्र’ आदि ग्रन्थों में चौहानों को सूर्यवंशी क्षत्रिय माना गया है।
(9) हेंनसांग ने चालुक्यवंशी नरेश पुलिकेशिन द्वितीय को क्षत्रिय बतलाया है। प. ओझा का मत है कि चालुक्य सूर्यवंशी क्षत्रिय थे।
(10) चन्दबरदाई ने ‘पृथ्वीराजरासो’ में राजपूतों की सभी 36 शाखाओं को सूर्य, चन्द्र और यदुवंशी बताया हैं।
किंतु डॉ. गोपीनाथ शर्मा ने राजपूतों को प्राचीन क्षत्रियों की संतान माने जाने के मत को स्वीकार नहीं किया है, और विभिन्न तर्कों से इस मत का खंडन किया हैं।
(ii) ब्राह्मणवंशीय मत
• डॉ. भण्डारकर, डॉ. गोपीनाथ शर्मा व डॉ. दशरथ शर्मा आदि विद्वानों ने राजपूतों के अनेक राजवंशों की उत्पत्ति ब्राह्मण वर्ण से होने का मत प्रतिपादित किया है।
• यद्यपि डॉ. भण्डारकर ने राजपूत राजवंशों की कुछ शाखाओं को विदेशी गुर्जरों की सन्तान सिद्ध करते हुये यह भी मत प्रतिपादित किया था अग्निवंशीय प्रतिहार, परमार, चालुक्य और चौहान गुर्जर जाति के थे, यह गुर्जर जाति श्वेत हूणों के साथ निकट का संबंध रखती थी।
• डॉ. भण्डराकर ने एक और मत यह भी प्रतिपादित किया कि कुछ राजपूत वंश ब्राह्मण जाति से थे।
• डॉ. भण्डारकर ने अपने मत की पुष्टि के लिये बिजौलिया शिलालेख का प्रमाण दिया है। इस शिलालेख में वासुदेव के उत्तराधिकारी सामन्त को वत्स गौत्रिय ब्राह्मण बताया गया।
• ‘कायमखाँ रासो’ में भी चौहानों की उत्पत्ति वत्स से मानी गई है जो जमदाग्नि गौत्र का ब्राह्मण था। इस कथन की पुष्टि सुण्डा और आबू अभिलेख से भी होती हैं।
• इसी प्रकार डॉ. भण्डारकर गुहिल राजपूतों की भी उत्पत्ति नागर ब्राह्मणों से मानते हैं।
• यद्यपि डॉ. गोपीनाथ शर्मा, डॉ. भण्डारकर के राजपूतों के उत्पत्ति के ब्राह्मणवंशीय मत को सभी राजपूत राजवंशों के लिये तो लागू करना उचित नहीं मानते किन्तु इस मत में तनिक सत्यता स्वीकार करते हुये उन्होंने स्वयं ने कुम्भलगढ़ प्रशस्ति-द्वितीय पट्टिका के पद्यांशों के आधार पर गुहिलवंशीय बापा रावल को आनन्दपुर के ब्राह्मण वंश का माना है।
• डॉ. दशरथ शर्मा परमारों को ब्राह्मण वंशी मानते है।
विदेशियों और अनार्यों से उत्पत्ति सम्बन्धी मत
कर्नल टाड का मत ऐसा माना जाता है कि मानव सभ्यता का उदय पश्चिमी एशिया में हुआ और फिर यह पूर्व में फैली, इस मान्यता के आधार पर कर्नल टाड का मत है कि राजपूत छठी शताब्दी ई. में भारत में आई शक या सीथियन जाति के वंशज हैं।
• उनकी इस धारणा का मूल आधार यह है कि सूर्यपूजा, अश्वपूजा, अश्वमेध, अस्त्र-पूजा, सतीप्रथा, उत्तेजक सुरा के प्रति अनुराग, शकुन विचार, आराध्य देव या देवी को रक्त व सुरा का अर्पण, वीरता आदि गुण और रीति-रिवाज शकों और राजपूतों में समान रुप से पाये जाते हैं। अतः निश्चय ही राजपूत और शक कभी एक ही रहे होंगे।
• यही नहीं कर्नल टाड ने तो राजपूतों की उत्पत्ति के अग्निकुण्ड के सिद्धान्त को मान्यता देते हुये इसे अनार्यों के शुद्धिकरण का प्रतीक मानकर यह मत भी प्रतिपादित किया है कि जब कालान्तर में शकों में हिन्दू धर्म और संस्कृति को अंगीकार कर लिया तो ब्राह्मणों ने अग्निकुंण्ड के माध्यम से उनकी शुद्धि करके, उन्हे हिन्दू समाज का अंग बना लिया
अर्थात् उनका आर्याकरण या भारतीयकरण कर लिया।
- चूँकि भारतीय समाज में वर्ण और जाति के निर्धारण का आधार व्यवसाय रहा है तथा शक विजेता और शासक थे। अतः उन्हें भारतीय समाज के क्षत्रिय वर्ण में स्थान मिला और वे राजपुत्र या राजपूत कहलाने लगे।
- वी. ए. स्मिथ का मत डॉ. वी. ए. स्मिथ ने भी अपनी पुस्तक “अर्ली हिस्ट्री ऑफ इण्डिया” में टाड की भाँति राजपूतों को विदेशी और अनार्यों का वंशज ही माना है।
- डॉ. स्मिथ की मान्यता है कि चूंकि राजपूत जाति सातवीं से नौवीं शताब्दी में यकायक प्रकट हुईं। अतः यह जाति भारतीय आर्यों की वंशज न होकर विदेशी और अनार्य थी।
- उनकी मान्यता है कि जो राजपूत सूर्य के उपासक है, वे विदेशी जातियों के और जो नाग के उपासक हैं, वे यहाँ के मूल निवासियों अर्थात् अनार्यों के वंशज हैं।
- डॉ. स्मिथ का मत है कि इस बात में कोई सन्देह नहीं है कि उत्तर भारत में राजपूतों के कुछ वंश विदेशी गुर्जरों और हूणों के वंशज हैं।
- उनका कथन है कि शक और यूची (कुषाणों) की भाँति गुर्जर और हूण जातियाँ भी 5वीं और 6वीं शताब्दी में भारत में आई।
- कालान्तर में ये जातियाँ हिन्दू धर्म ग्रहण करके हिन्दू बन गई अर्थात् इनका भारतीयकरण हो गया। इन जातियों की जिन शाखाओं ने कुछ भू-भागों पर अधिकार कर लिया, वे क्षत्रिय वर्ण में मिल गये और उन्हें राजपूत की संज्ञा दी गई।
- यही नहीं डॉ. स्मिथ का तो ये भी मत हैं कि विदेशियों की भाँति दक्षिण भारत की गौड़, भर, खोखर आदि अनार्य जातियों का भी आर्याकरण हो गया और वे चन्देल, राठौड़ आदि नामों से प्रसिद्ध हो गई।
- इन्हीं भारतीयकृत और आर्थीकृत राजपूत राजवंशों ने अपनी विदेशी और अनार्य उत्पत्ति को छिपाने के लिये कालान्तर में स्वयं को सूर्यवंशी और चन्द्रवंशी कहना आरम्भ कर दिया।
• विलियम कुक की मान्यता है कि राजपूत शकों, कुषाणों, पह्नवों, हूणों और गुर्जरों की सन्तान है, विशेष रूप से गुर्जर जाति हूणों की सन्तान है।
• कालान्तर में गुर्जरों और अन्य आक्रमणकारी जातियों ने हिन्दू धर्म को स्वीकार कर लिया और हिन्दू समाज के अंग बन गए। यहीं भारतीयकृत विदेशी कालान्तर में राजपूत कहलाए।
डॉ भण्डारकर ने भी राजपूतों के विभिन्न राजवंशों को विदेशियों यथा हैहय, हूणों और विशेषकर गुर्जरों की सन्तान सिद्ध करने का प्रयत्न किया है।
• डॉ. भण्डारकर का मत है कि गुर्जर लोग हूणों के साथ भारत में आने होने वाली खिजर जाति की सन्तान है। यही गुर्जर कालान्तर में राजपूत कहलाए।
• इसी प्रकार उनका मत है कि पुराणों में हैहय जाति का उल्लेख विदेशी शकों और यवनों के साथ हुआ हैं अतः हैहय राजपूत वंश भी विदेशी ही था।
• उनकी मान्यता है कि राजपूतों की प्रतिहार, चालुक्य, परमार और चाहमान शाखाएँ इन्हीं विदेशी गुर्जरों की सन्तान थीं।
• इसी प्रकार उनका मत है कि प्राचीन लाट प्रदेश का गुजरात नामकरण उस पर चालुक्यों का अधिकार होने के बाद ही हुआ था। अतः चालुक्य राजपूत भी गुर्जर ही थे।
4) मिश्रित जातियों से उत्पत्ति का सिद्धान्त –
• डॉ. गोपीनाथ शर्मा का मत है कि प्राचीन काल में अपना पृथक अस्तित्व खोकर जिन विदेशी जातियों का भारतीय समाज में विलीनीकरण हुआ उनमें से कुछ क्षत्रियों में विलीन हुई थीं।
इन विदेशियों के रक्त से मिश्रित जाति राजपूत जाति थी। यह सामाजिक उथल-पुथल और रक्त मिश्रण का परिणाम था वि. स. 1034 (977 ई.) के शक्तिकुमार के शिलालेख में उल्लेखित हूण कन्या हरियादेवी का विवाह गुहिलवंश के अल्लट के साथ होना इस रक्तमिश्रण का स्पष्ट प्रमाण है। الا
• कालान्तर में जब इस मिश्रित जाति के हाथ में राजसत्ता आ गई तो ब्राह्मणों ने उसे क्षत्रियों की संज्ञा दे दी और वे राजपुत्र कहलाने लगे। मुसलमानों के आगमन पर यह राजपुत्र लौकिक भाषा में राजपूत कहलाने लगे।
• किन्तु डॉ. शर्मा सभी राजपूत राजवंशों की उत्पत्ति इस रूप में अर्थात् मिश्रित जाति से नहीं मानते।
→ अंत में डॉ. कानूनगो के शब्दों में यही कहा जा सकता है कि “राजपूत चाहे किसी भी रूप में जन्में हो, लेकिन यह सत्य है कि इतिहास में उन्होंने महाकाव्य काल के क्षत्रियों की परम्परा को बनाए रखा है।
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