प्रकाशिकी (Optics)-

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भौतिकी की वह शाखा है जिसमें प्रकाश के व्यवहार, प्रकृति, स्वरूप एवं गुणों की व्याख्या की जाती है।

  • प्रकाश के लिए Science में ‘फोटो (Photo)’ शब्द का उपयोग किया जाता है। जैसे फोटोग्राफी, Photo Synthesis, फोटोमीटर (प्रकाश की तीव्रता मापने के लिए (मात्रक- कैण्डेला)
  • प्रकाश ऊर्जा का एक रूप है। प्रकाश एवं दृष्टि की संवेदना के कारण हम एक अदीप्त वस्तु को देख सकते हैं जब प्रकाश वस्तु से हमारी आंख की ओर परावर्तित होता है।

दीप्त वस्तुएं – वे समस्त वस्तुएं जो कि अपना स्वयं का प्रकाश उत्सर्जित (जनित) करती हैं, ज्योतिष्मान / दीप्त पिंड / प्रकाशिक वस्तुएं (Luminous objects) कहलाती हैं।

  • सूर्य, तारा, जलता हुआ कोयला, जलता हुआ बल्ब ये सभी प्रकाशिक वस्तुएं हैं।
  • LUC (ल्यूसीफरेज) जीन जुगनू में जैव प्रदीप्ति (Bioluminiscence) उत्पन्न करती है।

अप्रदीप्त वस्तुएं – जिन वस्तुओं से अपना स्वयं का प्रकाश नहीं निकलता उन्हें अप्रदीप्त वस्तुएँ / ज्योतिहीन वस्तुएं कहा जाता है। जैसे- चंद्रमा, मनुष्य

प्रकार –

3. पारदर्शी वे पदार्थ, जिनके आर-पार देखा जा सके। प्रकाश इन पदार्थों में से होकर आसानी से गुजर जाता है। पारदर्शी पदार्थों के उदाहरण हैं, हवा, पानी, काँच आदि।

4. पारभासी / पारमासक वे पदार्थ, जिनके आर-पार धुंधला दिखाई देता है। जैसे घिसा हुआ काँच, तेल लगा हुआ कागज

5. अपारदर्शी – वे पदार्थ जिनके आर-पार देखा न जा सके। ये प्रकाश के पथ में अवरोधक का काम करते हैं। जैसे धातुएं, लकड़ी, पत्थर इत्यादि। किसी प्रकाश-स्रोत से फैलते हुए प्रकाश के रास्ते में यदि एक अपारदर्शी पिंड रख दिया जाए तो उस प्रकाश-अवरोधक पिंड के दूसरी ओर उसके जैसी एक काली आकृति बनेगी, जो उसकी छाया कहलाती है। छाया का मध्य भाग अधिक काला होता है जिसे प्रच्छाया कहा जाता है। प्रच्छाया के चारों ओर का कम काला भाग उपछाया कहलाता है

चन्द्र ग्रहण – जब कभी सूर्य पृथ्वी और चन्द्रमा एक सीध में आ जाते हैं और पृथ्वी सूर्य एवं चन्द्रमा के बीच में होती है तो पृथ्वी की छाया चन्द्रमा पर पड़ती है चन्द्रमा जो सूर्य के प्रकाश से चमकता है उसके जिस भाग पर सूर्य की किरणें नहीं पड़ती वह अपनी चमक खो देता है। यह चन्द्र ग्रहण कहलाता है। चन्द्र ग्रहण पूर्णिमा के दिन ही होता है

सूर्य ग्रहण – सूर्य, चन्द्रमा और पृथ्वी एक सीध में आ जाएँ और चन्द्रमा, सूर्य एवं पृथ्वी के बीच में हो तो चन्द्रमा की छाया पृथ्वी पर पड़ती है। पृथ्वी के जिस हिस्से पर चन्द्रमा की छाया पड़ती है, वहाँ के लोगों को सूर्य पूरा दिखाई नहीं देता। उनके लिए तब सूर्य ग्रहण होता है। सूर्य ग्रहण अमावस्या के दिन ही होता है

NOTE : चंद्रमा की कक्षा सूर्य के चारों ओर पृथ्वी की कक्षा के सापेक्ष थोड़ी झुकी हुई है। यह हर कक्षा में सूर्य को अवरुद्ध नहीं करता है, इसलिए हर अमावस्या पर सूर्य ग्रहण नहीं होता है, न ही चंद्र ग्रहण हर पूर्णिमा को होता है।

प्रकाश विद्युत चुम्बकीय तरगों के रूप में संचारित होता है

प्रत्यास्थ / विद्युत चुम्बकीय तरंग-वे तरंग जिनके संचरण के लिए माध्यम की आवश्यकता नहीं होती है। इसमें रेडियो तरंगें, अवरक्त, दृश्य प्रकाश, पराबैंगनी, एक्स-रे और गामा किरणें शामिल हैं।

  • विद्युत चुम्बकीय तरंगें अनुप्रस्थ तरंग होती है (वे तरंग जिनमें माध्यम के कण संचरण की दिशा के लम्बवत कम्पन करते हैं)
  • प्रकाश अनुप्रस्थ तरंग है (ध्रुवण घटना प्रदर्शित करता है केवल अनुप्रस्थ तरंगें ध्रुवण घटना प्रदर्शित करती है)
  • प्रकाश विद्युत चुम्बकीय स्पेक्ट्रम का दृश्य भाग हैं जिसकी तरंग दैर्ध्य परास 3800 में से 7800 Å (380nm से 780 nm तक) तक होती है।

प्रत्यास्थ / यांत्रिक तरंग – वे तरंग जिनके संचरण के लिए माध्यम की आवश्यकता होती है। जैसे ध्वनि तरंग, जल में, डोरी में एवं स्प्रिंग में उत्पन्न तरंग आदि।

  • ध्वनि तरंग अनुदैर्ध्य तरंग होती है (वे तरंग जिनमें माध्यम के कण संचरण की दिशा के अनुदिश / समान्तर कम्पन करते हैं।)
  • प्रकाश एवं ध्वनि प्रगामी तरंग होती है (प्रगामी तरंगों के द्वारा ऊर्जा का स्थानान्तरण होता है)
  • प्रकाश के सीधी रेखा गमन पथ को प्रकाश किरण एवं इन किरणों का समूह प्रकाश पुंज कहलाता है परन्तु जब इसके मार्ग में सूक्ष्म अवरोध (न्यून तरंगदैर्ध्य की कोटि का अवरोध) आ जाता है तो यह उसके किनारों से टकराकर मुड़ जाता है। यह घटना विवर्तन कहलाती है
  • निर्वात में प्रकाश की चाल 3×10^8 मीटर / सेकंड होती है। (निर्वात> गैस> द्रव> ठोस)
  • प्रकाश की गति का पहला सफल माप या निर्धारण ओल्स रोमर (1676) द्वारा किया गया था।

प्रकाश की प्रकृति के स्पष्टीकरण के लिए विभिन्न सिद्धान्त या मत –
(1) न्यूटन का कणिका सिद्धान्त

(2) हाइगेन्स का तरंग सिद्धान्त
(3) मैक्सवेल का विद्युत चुम्बकीय तरंग सिद्धान्त
(4) मैक्स प्लांक का क्वान्टम सिद्धान्त
(5) डी-ब्रोग्ली का द्वैत प्रकृति सिद्धान्त (तरंग प्रकृति एवं कण प्रकृति)

तरंग प्रकृति से व्याख्या – परावर्तन, अपवर्तन, ध्रुवण, व्यक्तिकरण, विवर्तन

कण प्रकृति से व्याख्या – प्रकाश विद्युत प्रभाव, कॉम्पटन प्रभाव, द्रव्य के साथ अन्योन्यक्रिया

प्रकाश विद्युत (फोटोइ‌लेक्ट्रिक) प्रभाव पर अपने काम के परिणामस्वरूप, आइंस्टीन को 1921 में भौतिकी में नोवेल पुरस्कार मिला।

प्रकाश का परावर्तन (Reflection of Light)

  • जब कोई प्रकाश की किरणें किसी एक माध्यम में चलते हुए किसी समतल अथवा चमकदार सतह से टकराकर पुनः उसी माध्यम में लोट जाएं, तो इस प्रक्रिया को प्रकाश का परावर्तन कहते हैं।

आपतित किरण – किसी पृष्ठ पर पड़ने वाली प्रकाश-किरण को आपतित किरण कहते हैं। पृष्ठ से परावर्तन के पश्चात वापस आने वाली प्रकाश-किरण को परावर्तित किरण कहते हैं। दर्पण से 90 ^ 0 का कोण बनाते हुए एक रेखा परावर्तक पृष्ठ के उस बिन्दु पर अभिलम्ब कहलाती है।

  • आपतित किरण तथा अभिलम्ब के बीचके कोण को आपतन कोण ( angle i ) कहते हैं। परावर्तित किरण तथा अभिलम्ब के बीच के कोण को परावर्तन कोण ( angle r ) कहते हैं।

प्रकाश के परावर्तन के नियम निम्न हैं –
(1) आपतन कोण ( angle i ) परावर्तन कोण ( angle r ) के बराबर होता है। अर्थात् ( angle i )=( angle r)

(2) आपतित किरण, परावर्तित किरण एवं परावर्तक सतह पर अभिलम्ब तीनों एक ही तल पर स्थित होते हैं। यह तल आपतन तल कहलाता है।

परावर्तन के नियम सभी प्रकार के पृष्ठों के लिए मान्य होते हैं (समतल, वक्र, अनियमित ।)
प्रकाश के परावर्तन में प्रकाश की आवृत्ति, तरंग दैर्ध्य एवं चाल में कोई परिवर्तन नहीं होता किन्तु तीव्रता सामान्यतः घटती है।

परावर्तन के प्रकार नियमित और विसरित परावर्तन

1 नियमित परावर्तन जब प्रकाश की समान्तर किरणें किसी समतल दर्पण पर आपतित होती है, तब परावर्तित किरणें एक दूसरे के समांतर किसी विशेष दिशा में जाती है। इस प्रकार के परावर्तन को नियमित परावर्तन कहते हैं।

2 विसरित परावर्तन – किसी खुरदरे धरातल पर आपतित प्रकाश की किरणें समान्तर होने पर भी परावर्तन के पश्चात समान्तर नहीं होती है, अपितु ये भिन्न-भिन्न दिशाओं में परावर्तित होती है। इस प्रकार के अनियमित परावर्तन को विसरित परावर्तन कहते हैं।

  • विसरित परावर्तन के कारण ही हमें छायादार पेड़ के नीचे तथा कमरे के अन्दर तक प्रकाश प्राप्त होता है।
  • अच्छे परावर्तक – ऐसी सतह जो उन पर आपतित प्रकाश के अधिकतम मान को परावर्तित कर दें, अच्छे परावर्तक कहलाते हैं। जैसे चिकनी व अच्छी पॉलिश वाली चमकीली सतह, दर्पण आदि।
  • मंद परावर्तक ऐसी सतह जो आपतित प्रकाश में से कुछ भाग ही परावर्तित कर सकें, वे मंद परावर्तक कहलाते हैं।

दर्पण (Mirror) – दर्पण परावर्तन के सिद्धान्त पर कार्य करता है। साधारण काँच पारदर्शी होता है, चाँदी तथा पारा धातु प्रकाश के अच्छे परावर्तक होते हैं। अतः चाँदी व पारा का लेपन कर दर्पण बनाये जाते है।

ये दो प्रकार के होते हैं (1) समतल दर्पण (2) गोलीय दर्पण

(1) समतल दर्पण से परावर्तन – जिसमें पूर्णतः परावर्तक समतल सतह होती है।

  • समलल दर्पण में प्रतिबिम्ब सीधा, आभासी और वस्तु के बराबर (आवर्धन +1) होता है।
  • समतल दर्पण की फोकस दूरी अनंत होती है
  • जिस प्रतिबिम्ब को पर्दे पर प्राप्त न किया जा सके, उसे आभासी प्रतिबिम्ब कहते हैं।
  • ऐसे प्रतिबिम्ब जिन्हें पर्दे पर प्राप्त किया जा सकता है, वास्तविक प्रतिबिम्ब कहते हैं।
  • प्रतिबिम्ब दर्पण के पीछे उतनी ही दूरी (d) पर बनता है, जितनी कि दर्पण से वस्तु (बिम्ब) की दूरी (d) होती है।
  • समतल दर्पण में प्रतिबिंब में ‘दायाँ भाग’ ‘बायाँ’ दिखाई देता है तथा ‘बायाँ भाग’ ‘दायाँ’ दिखाई देता है। इस घटना को पार्श्व परिवर्तन (Lateral Inversion) कहते हैं। पार्श्व परिवर्तन के कारण ही रोगी वाहन पर AMBULANCE पार्थ उल्टा लिखा जाता है।
  • यदि व्यक्ति अपनी सम्पूर्ण ऊँचाई (h) समतल दर्पण में देखना चाहता है तो समतल दर्पण की न्यूनतम लम्बाई (h / 2) व्यक्ति की ऊँचाई की आधी होनी चाहिये

जब दो समतल दर्पण के मध्य कोण हो तो m(360/8) सम हो तो प्रतिबिम्ब की संख्या n = m – 1 m (360 / theta) विषम हो तो यहाँ दो स्थितियाँ सम्भव है। प्रतिबिम्बों की संख्या (N) = 360 दर्पण के मध्य कोण

(1) जब बिम्ब समद्विभाजक पर नहीं हो (असममित) तब प्रतिबिम्बों की संख्या n = m
(i) जब बिम्ब समद्विभाजक (सममित) पर हो तब n = m – 1

समतल दर्पण के उपयोग-
(a) समतल दर्पण का उपयोग चेहरा देखने हेतु
(b) बहुरूपदर्शी (केलिडोस्कोप) तथा पेरिस्कोप में किया जाता है।

2. गोलीय दर्पण (Spherical mirror)- वक्र दर्पण खोखले गोले का भाग होता है। खोखले गोले के कटे हुए भाग के एक पृष्ठ को रजतित करने पर इसका दूसरा पृष्ठ परावर्तक की भाँति कार्य करता है जिसे गोलीय दर्पण कहते हैं। दो प्रकार – (a) अवतल दर्पण (b) उत्तल दर्पणा

यदि परावर्तन आन्तरिक पृष्ठ से होता है तो दर्पण अवतल (Concave) कहलाता है।
यदि इसका बाहरी पृष्ठ परावर्तक का कार्य करता है तो दर्पण उत्तल (Convex) है।

गोलीय दर्पण के लिए परिभाषाएँ (Definitions for this spherical mirrors) –

1. द्वारक (Aperture) MM’ दर्पण के वृत्ताकार चाप को गोलीय दर्पण का द्वारक कहते हैं।
2. ध्रुव (Pole) P – दर्पण के पृष्ठ का मध्य बिन्दु ध्रुव कहलाता है।
3. वक्रता केन्द्र (Centre of Curvature) C – दर्पण जिस खोखले गोले का भाग है उसका केन्द्र
4. वक्रता त्रिज्या (Radius of Curvature) CP – दर्पण के वक्रता केन्द्र तथा ध्रुव के बीच की दूरी
5. मुख्य अक्ष (Principle Axis) वक्रता केन्द्र C तथा ध्रुव P को मिलाने वाली रेखा
6. मुख्य फोकस (Princpal Focus) F – मुख्य अक्ष के समान्तर आपतित किरणें दर्पण से परावर्तन के बाद मुख्य अक्ष के जिस बिन्दु पर मिलती हैं या मिलती हुई प्रतीत होती हैं उसे गोलीय दर्पण का मुख्य फोकस या फोकस बिंदु कहते हैं
अवतल दर्पण का मुख्य फोकस बिन्दु दर्पण के सामने तथा उत्तल दर्पण का फोकस बिन्दु दर्पण के पीछे स्थित होती है।
7. फोकस दूरी (Focal Length) – मुख्य फोकस बिन्दु F तथा दर्पण के ध्रुव P के बीच की दूरी को फोकस दूरी कहते हैं।

गोलीय दर्पण की फोकस दूरी (f) उसकी वक्रता त्रिज्या (R) की आधी होती है f=R/2 या R=2f

चिन्ह परिपाटी (Sign Convention) – गोलीय सतहों से परावर्तन एवं अपवर्तन का अध्ययन करने के लिए हम एक चिन्ह परिपाटी अपनाते हैं जो नवीन कार्तीय चिन्ह परिपाटी कहलाती है। इस परिपाटी के अनुसार-

1. मुख्य अक्ष के समान्तर सभी दूरियां दर्पण के ध्रुव (मूल बिन्दु) से मापी जाती हैं।

2. बिम्ब दर्पण के बाईं ओर रखा जाता है अर्थात् बिम्ब से आने वाली किरणें दर्पण पर सदैव बाई ओर से आपतित होती है अतः वास्तविक बिम्ब की दूरी (u) सदैव ऋणात्मक होगी।
वास्तविक प्रतिबिम्ब की दर्पण से दूरी (v) ऋणात्मक तथा आभासी प्रतिबिम्ब की दर्पण से दूरी (v) धनात्मक होगी।

3. मुख्य अक्ष के समान्तर मूल बिन्दु के बाई ओर (-X अक्ष के अनुदिश) की सभी दूरियां ऋणात्मक ली जाती हैं। इसी प्रकार मूल बिन्दु के दाई ओर (+X अक्ष के अनुदिश) की सभी दूरियां धनात्मक मानी जाती हैं।
अवतल दर्पण हेतु फोकस दूरी (f) एवं वक्रता त्रिज्या (R) सदैव ऋणात्मक होगी।
उत्तल दर्पण की वक्रता त्रिज्या एवं फोकस दूरी हमेशा दर्पण के पीछे (दाईं ओर) होती है अतः ये दोनों हमेशा धनात्मक होगें।

4. मुख्य अक्ष के उपर की ओर लम्बवत मापी जाने वाली दूरियां (+Y अक्ष के अनुदिश) धनात्मक मानी जाती हैं जबकि मुख्य अक्ष के नीचे की ओर लम्बवत मापी जाने वाली दूरियां (-Y अक्ष के अनुदिश) ऋणात्मक मानी जाती हैं।
गोलीय पृष्ठके उभरे हुए ‘भाग को रजतित किया जाता है तो इसका भीतरी पृष्ठ परावर्तक की भाँति कार्य करता है। परावर्तक सतह अंदर की ओर वक्र होती है इसलिए, यह उस पर आपतित सारे प्रकाश को एक ही बिंदु पर अभिसरित (एकत्रित) करता है। इसलिए अवतल दर्पण को अभिसारी दर्पण (Converging mirror) कहते हैं।

अवतल दर्पणों के उपयोग

> टॉर्च, सर्चलाइट तथा वाहनों के अग्रदीपों (headlights) (परवलयिक (parabolic)) में प्रकाश का शक्तिशाली समानांतर किरण पुंज प्राप्त करने के लिए किया जाता है।
> इन्हें प्रायः चेहरे का बड़ा प्रतिबिंब देखने के लिए शेविंग दर्पणों (shaving mirrors) के रूप में उपयोग करते हैं।
> दंत विशेषज्ञ अवतल दर्पणों का उपयोग मरीजों के दाँतों का बड़ा प्रतिबिंब देखने के लिए करते हैं। (नाक, कान, गले की जाँच में भी)
> सौर कुकर, सोलर सेल एवं सौर भट्टियों में सूर्य के प्रकाश को केंद्रित करने के लिए अवतल दर्पणों का उपयोग किया जाता है।
> घरों पर जो सेटेलाइट डिश एन्टेना देखते हैं तो अवतल दर्पण ही है जो उपग्रहों से प्राप्त संकेतों को एकत्रित करके अभिग्राही (Receiver) तक पहुंचाता है।
> परावर्तक टेलिस्कॉप में भी अवतल दर्पण का उपयोग किया जाता है जिससे सूर्य, चन्द्रमा अथवा दूरस्थ बिम्ब से प्राप्त समान्तर किरणें फोकस पर केन्द्रित की जाती हैं।
यदि गोलीय पृष्ठ के भीतरी भाग को रजतित किया जाता है तो इसका बाह्य पृष्ठ परावर्तक की भाँति कार्य करता है जिसे उत्तल दर्पण कहते हैं। अर्थात वक्र का उभरा हुआ बाहरी तल उत्तल दर्पण होगा। उत्तल दर्पण पर मुख्य अक्ष के समांतर आने वाली किरण परावर्तन के पश्चात् अपसारित (फैल जाती है) हो जाती है
> इसलिए इसे अपसारी दर्पण (Diverging Mirror) भी कहते है।
> उत्तल दर्पण में फोकस बिन्दु व वक्रता केन्द्र दर्पण के पीछे होते हैं
> उत्तल दर्पण में प्रतिबिम्ब हमेशा आभासी एवं सीधा ही बनता है। जैसे-जैसे बिम्ब दर्पण के नजदीक आता जाता है उसका प्रतिबिम्ब थोड़ा बड़ा होता जाता है लेकिन उसका आकार बिम्ब से छोटा ही रहता है।

उत्तल दर्पणों के उपयोग
> इसका उपयोग वाहनों में पश्च दृश्य दर्पणों (Rear view mirror) एवं पार्श्व दर्पण (Side mirror) की तरह किया जाता है (ये एक वृहद् दृश्य क्षेत्र को दिखा सकते हैं)

> इसका उपयोग एटीएम में सुरक्षा उद्देश्यों के लिए किया जाता है।
> इसका उपयोग स्ट्रीट लाइटों के लिए रिफ्लेक्टर (परावर्तक) के रूप में भी किया जाता है।
> एक छोटे उत्तल दर्पण में किसी ऊँचे भवन/पेड़ का पूर्ण-लंबाई का प्रतिबिंब देख सकते हैं

दर्पण सूत्र (Mirror formula)– एक गोलीय दर्पण में u,v एवं f तीनों राशियां एक समीकरण द्वारा सम्बद्ध है जिसे दर्पण सूत्र कहा जाता है –
1/v + 1/u = 1/f

(i) ध्रुव से बिम्ब की दूरी ॥ कहलाती है,
(ii) ध्रुव से प्रतिबिम्ब की दूरी v कहलाती है,
(iii) ध्रुव से फोकस की दूरी । कहलाती है।

> कार्तीय चिह्न परिपाटी के अनुसार u, v, f एवं R (वक्रता त्रिज्या) के मानों के साथ उचित चिह्नों (या) का प्रयोग किया जाता है।
> अवतल दर्पण के लिए u, R,f तथा v दपर्ण के सामने (वास्तविक प्रतिबिम्ब) व दपर्ण के पीछे (आभासी) +
> उत्तल दर्पण के लिए u- तथा R,f व v+
> यह सूत्र सभी प्रकार के गोलीय दर्पणों के लिये मान्य है।
प्रकाश का अपवर्तन (Refraction of Light) किसी समांगी (isotropic) एवं पारदर्शी माध्यम में प्रकाश की किरणें
सीधी रेखाओं में एक ही चाल से चलती हैं। परन्तु “जब प्रकाश की किरण एक पारदर्शी माध्यम से दूसरे पारदर्शी माध्यम में तिर्यक आपतित होकर संचरण करती है तो दोनों माध्यमों को पृथक करने वाले पृष्ठ पर इसके संचरण की दिशा प्रारम्भिक दिशा से विचलित हो जाती है। इस परिघटना को प्रकाश का अपवर्तन कहते हैं।”

> जब प्रकाश किरण प्रकाशीय विरल माध्यम से प्रकाशीय सघन माध्यम (हवा से कांच) में प्रवेश करती है तो वह अभिलम्ब की ओर झुक जाती है। (वेग कम व ∠i> <r होता है।)
> जब प्रकाशीय किरण सघन माध्यम से विरल माध्यम (कांच से हवा) में जा रही है तो इस समय अपवर्तित किरण अभिलम्ब से दूर हटती है (वेग ज्यादा व ∠i < r होता है।)
> यदि किरण इन पृथक्कारी पृष्ठ पर लम्बवत गिरती है तो आपतन कोण । व अपवर्तन कोण परस्पर बराबर होने से किरण में विचलन नहीं होता है।

अपवर्तन के नियम (Laws of Refraction) –

(i) आपतित किरण, अपवर्तित किरण तथा दोनों माध्यमों को पृथक करने वाले पृष्ठ के आपतन बिंदु पर अभिलंब सभी एक ही तल में होते हैं।
(ii) प्रकाश के किसी निश्चित रंग तथा निश्चित माध्यमों के युग्म के लिए आपतन कोण की ज्या (sin i) तथा अपवर्तन कोण की ज्या (sin r) का अनुपात स्थिर होता है। इस नियम को खेल का अपवर्तन का नियम भी कहते हैं। (यह कोण (0°<i<90° के लिए सत्य है)

उदाहरण –

आन्तरिक परावर्तन (Total internal reflection)- जब प्रकाश किरणें सघन माध्यम से विरल माध्यम में जाती है
(a) तो वे अपवर्तन के पश्चात् अभिलम्ब से दूर होती जाती है (r> i) यदि किरणों के आपतन कोण को बढ़ाते जाएं तो आपतन कोण के एक विशिष्ट मान, जिसे उस माध्यम का क्रान्तिक कोण भी कहा जाता है, पर अपवर्तित किरण दोनों माध्यमों के पृथक्कारी पृष्ठ के समान्तर से गुजरती है। इस अवस्था में अपवर्तन कोण = 90° होता है
(b) अब यदि प्रकाश किरणों के आपतन कोण को और बढ़ाया जाए तो प्राकश की किरण विरल माध्यम में अपवर्तित होने के स्थान पर सघन माध्यम में ही परावर्तित हो जाती है (c) इसे पूर्ण आन्तरिक परावर्तन कहते है।

पूर्ण आन्तरिक परावर्तन के लिए निम्न बातों का होना आवश्यक होता है-
(1) प्रकाश किरण सघन माध्यम से विरल माध्यम में जानी चाहिये।
(2) आपतन कोण, क्रांतिक कोण से अधिक होना चाहिए।

जब प्रकाश का पूर्ण आंतरिक परावर्तन होता है तो आपतित किरण की सम्पूर्ण ऊर्जा परावर्तित होती है अर्थात परावर्तित प्रकाश की तीव्रता आपतित प्रकाश की तीव्रता के बराबर होती है।

पूर्ण आन्तरिक परावर्तन के उदाहरण –

1. हीरे का चमकदार दिखाई देना। (हीरे के लिए क्रांतिक कोण 24 डिग्री)
2. काँच में पड़ी दरारों का, टूटे काँच की सतह का चमकदार दिखाई देना।
3. रेगिस्तान में मरिचिका (मृगतृष्णा) (Mirages) का दिखाई देना
4. ध्रुवीय क्षेत्रों में लूमिंग की घटना (प्रतिबिम्ब वायु में बनता है)
5. गर्मी में सड़क पर चलते वाहनों को पानी का भ्रम होना।
6 . पानी में हवा का बुलबुला व परखनली का चमकदार दिखना।
7. प्रकाशीय तन्तु पूर्ण आंतरिक परावर्तन के सिद्धांत पर कार्य करते हैं। जिसकी सहायता से एक प्रकाश संकेत को एक स्थान से दूसरे स्थान तक बिना ऊर्जा क्षति के प्रेषित किया जा सकता है।

> प्रकाशिक तंतु उच्च गुणवत्ता के संयुक्त काँच / क्वार्ट्ज (SiO2) तंतुओं से बनाया जाता है।

• संकेत प्रकाश किरणों के रूप में Core में प्रवाहित होता है क्योंकि Core (आंतरिक भाग) सघन माध्यम की तरह (अपवर्तनांक अधिक) तथा Cladding विरल माध्यम की तरह (अपवर्तनांक कम) व्यवहार करता है।
प्रकाशिक तंतु (Optical Fiber) का उपयोग – Internet Providing एवं Endoscopy में
• एण्डोस्कोपी – जिसमें डॉक्टर आपके शरीर के अंदर का नजदीकी दृश्य देखने के लिए एक देखने वाली ट्यूब का उपयोग करते हैं आंतरिक अंगों जैसे पाचन तंत्र (गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल या GI ट्रैक्ट) के दृश्य अवलोकन हेतु वर्ण विक्षेपण (Dispersion of light) जब श्वेत प्रकाश की किरण किसी पारदर्शी प्रिज्म पर आपतित होती है तो अपवर्तन के पश्चात् वह सात मुख्य रंगों (VIBGYOR) में विभाजित हो जाती है। श्वेत प्रकाश की किरण का अपने संघटक रंगों वाली प्रकाश किरणों में विभाजन (विपाटन) होने की परिघटना को परिक्षेपण / विक्षेपण कहते हैं।”

प्रिज्म से वर्ण परिक्षेपण के पश्चात् प्रकाश के संघटक रंगों के प्रतिरूप को स्पेक्ट्रम कहते हैं।”
न्यूटन ने सर्वप्रथम यह सिद्ध किया था कि श्वेत प्रकाश में स्पेक्ट्रम के वर्ण विद्यमान होते है। (न्यूटन की डिस्क)
• निर्वात् में सभी रंगों की प्रकाश किरणें एक ही चाल 3×10° मीटर/सेकण्ड से चलती है। परन्तु प्रकीर्णन-संबंधी माध्यम में भिन्न-भिन्न रंगों के प्रकाश की चाल अलग-अलग होती है जिसके कारण से वर्ण- विक्षेपण उत्पन्न होता है। लाल रंग) स के प्रकाश का वेग बैंगनी रंग के प्रकाश से अधिक होता है। अतः अपवर्तन के पश्चात् बैंगनी रंग की किरण सबसे ज्यादा मुड़ जाती है तथा लाल रंग की किरण सबसे कम मुडती (विचलन) है।

प्रिज्म (Prism) – किसी कोण पर झुके दो अपवर्तक सतहों से घिरा पारदर्शी माध्यम प्रिज्म कहलाता है।
इंद्रधनुष (Rainbow) – वर्षा की बून्दों में प्रकाश के अपवर्तन एवं पूर्ण आन्तरिक परावर्तन के कारण वर्ण विक्षेपण होता वक्र है, जिससे इन्द्र धनुष दिखाई देता है
सुबह के समय इन्द्रधनुष पश्चिम में व सायंकाल के समय पूर्व दिशा में दिखाई देता है परन्तु दोपहर के समय इन्द्रधनुष दिखाई नहीं देता है क्योंकि इन्द्रधनुष आसमान में सूर्य के विपरीत दिशा में दिखाई देता है।
बैगनी, आसमानी, नीला, हरा, पीला, नारंगी, लाल इन्द्रधनुष में रंगों का सही क्रम होता है। इंद्रधनुष दो प्रकार का होता है प्राथमिक एवं द्वितीयक इंद्रधनुष जब बूंदों पर आपतित सूर्य किरणों का दो बार अपवर्तन तथा एक बार परावर्तन होता है, तो प्राथमिक इंद्रधनुष बनता है। इसमें लाल रंग बाहर और बैंगनी रंग अंदर की ओर होता है
जब बूंदों पर आपतित सूर्य किरणों का दो बार अपवर्तन तथा दो बार परावर्तन होता है, तो द्वितीयक इंद्रधनुष बनता है। इसमें लाल रंग अंदर की ओर कुछ धुंधला दिखाई देता है।

लेंस (Lens) – लेंस एक ऐसा समांगी पारदर्शी माध्यम होता है जो दो वक्र पृष्ठों से अथवा एक वक्र पृष्ठ तथा एक समतल पृष्ठ से घिरा होता है।

ये लेंस दो प्रकार के होते है-
(i) उत्तल लेंस या अभिसारी लेंस (Convex lens)

(ii) अवतल लेंस या अपसारी लेंस (Concave lens)

उत्तल लेंस किनारों पर पतले एवं बीच से मोटे होते हैं एवं समान्तर प्रकाश किरणों को अपवर्तन के पश्चात् एक स्थान पर फोकसित कर देते हैं। इसलिए इसे अभिसारी लेंस (converging lens) भी कहते हैं।

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