परिवहन (Transportation)

परिसंचरण (Circulation):- प्राणियों के शरीर के सभी भागों को नियमित जैविक क्रियाओं के लिए पोषक पदार्थों एवं ऑक्सीजन की निरन्तर आपूर्ति आवश्यक होती है। इसके लिए पदार्थों का शरीर के एक भाग से दूसरे भाग में या एक कोशिका से दूसरी कोशिका में परिवहन किया जाना आवश्यक होता है। पदार्थों के परिवहन को परिसंचरण कहा जाता है।

उच्च प्राणियों के शरीर में विभिन्न प्रकार के ऊतक, अंग एवं तंत्र विद्यमान होते हैं। इनके बड़े आकार व जटिलता के कारण, पोषक पदार्थों, ऑक्सीजन एवं उपापचय के अन्य उत्पादों का परिवहन एवं वितरण विसरण (एक कोशिकीय जीवों में) द्वारा सम्भव नहीं होता है। इसलिए उच्च अकशेरुकी, कशेरुकी एवं मानव में पोषक पदार्थों, गैसों, हॉर्मोन, अपशिष्ट पदार्थों व अन्य उत्पादों के रुधिर में परिवहन के लिए एक तंत्र पाया जाता है। वाहिनियों से बने एक तंत्र में रुधिर परिसंचरण करता है। एक पेशीय हृदय द्वारा इसे पम्प किया जाता है, इस तंत्र को परिसंचरण तंत्र कहते हैं।

  • परिसंचरण तंत्र का अध्ययन एंजियोलॉजी में करते हैं।
  • एंजियोलॉजी का जनक – विलियम हार्वे
  • सम्पूर्ण परिसंचरण तंत्र भ्रूण के Mesoderm से बनता है।
  • रुधिर पम्प किया जाता है जो बड़ी गुहाओं या रुधिर कोटरों या अवकाशों में खुलती है।

1. खुले प्रकार का रुधिर परिसंचरण तंत्र (Open Blood Vascular System) इस तंत्र में हृदय द्वारा धमनियों में >

  • कोटरों को सामूहिक रूप में रुधिर गुहा (Haemocoel) कहा जाता है।
  • रुधिर इस प्रकार के तंत्र में वाहिकाओं से बाहर आ जाता है।
  • यह वाहिकाओं में पूरी तरह बन्द नहीं रहता है। इसलिए इसे खुला तंत्र कहते है।
  • ऐसा तंत्र आर्थोपोडा (कीट, मकड़ी, तिलचट्टा आदि) तथा मोलस्का जन्तुओं (घोंघा, सीपी आदि) में पाया जाता है। इनमे खुले छिद्रों को ओस्टिया कहते हैं

2. बन्द प्रकार का रुधिर परिसंचरण तंत्र (Closed Blood Vascular System)- इस तंत्र में हृदय रुधिर को उच्चदाब पर धमनियों में पम्प करता है। धमनियाँ रुधिर केशिकाओं में विभाजित हो जाती हैं।

  • रुधिर एवं अन्तराली तरल के मध्य पदार्थों का अभिगमन केशिकाओं की भित्ति में से होता है।
  • केशिकाओं से रुधिर शिराओं से होता हुआ हृदय में लौटता है।
  • इस प्रकार रुधिर पूरी तरह रुधिर वाहिकाओं के अन्दर बन्द रहता है।
  • यह ऊतकों के सीधे सम्पर्क में नहीं आता है। इसलिए इसे बन्द प्रकार का तंत्र कहते हैं।
  • ऐसा तंत्र कुछ अकशेरुकी (जैसे- ऐनेलिडा में (केंचुआ)) तथा मानव सहित सभी कशेरुकी प्राणियों में पाया जाता है।

परिसंचरण तंत्र के अन्तर्गत निम्न दो प्रकार के तंत्र सम्मिलित हैं-

(1) रुधिर संवहन तंत्र (Blood vascular system):- इसके अन्तर्गत हृदय, रुधिर वाहिनियाँ तथा रुधिर सम्मिलित है।

(2) लसिका तंत्र (Lymphatic system) :- इसके अन्तर्गत लसिका, लसिका वाहिनियाँ (Lymph vessels), लसिक गाठे (Lymph – nodes) तथा लसिका अंग (Lymph organ) सम्मिलित है।

रक्त (Blood)

  • रक्त का अध्ययन – Haematology
  • रक्त निर्माण की प्रक्रिया – Haemopoiesis
  • रक्त एक लाल रंग का (हिमोग्लोबिन के कारण) तरल संयोजी उतक है। इसे आभासी संयोजी उतक भी कहते है क्योंकि रक्त की कोशिकाओं में विभाजन नहीं पाया जाता है।
  • एक सामान्य व्यक्ति में रक्त की मात्र 5-6 लीटर (पुरुष 5-6 लीटर, महिला 4-5 लीटर)
  • यह शरीर के भार का लगभग 7-8% होता है
  • रक्त की pH 7.4 (हल्का क्षारीय)। यह एक बफर कोलायडी विलयन है जो अपनी pH में अंतर का विरोध करता है। Note :- pH के मान में. 2 (न्यूनतम) का अंतर आने पर भी व्यक्ति की मृत्यु हो सकती है।
  • रक्त तरल मैट्रिक्स (प्लाज्मा) तथा रक्त कोशिकाओं का बना होता है, इन रक्त कोशिकाओं को संगठित पदार्थ (formed elements) कहा जाता है।
  • प्लाज्मा यह रक्त का तरल भाग (55%) है जो हल्का पीला एवं हल्का क्षारीय होता है। इसमें निम्न अवयव पाए जाते हैं

NOTE :- गामा ग्लोब्युलिन (एकमात्र प्लाज्मा प्रोटीन जिसका निर्माण यकृत में नही होता बल्कि लसिका अंगो में होता है) ये रोगाणुओं को और उनके द्वारा स्त्रावित विष पदाथों को नष्ट करते है, अतः ये Antibody का कार्य करते हैं, इन्हें Immunoglobulin भी कहते है, जो पांच प्रकार की होती है-

[A] IgG – Placenta को पार कर भ्रूण तक पहुँच सकती है।
[B] IgA (अल्फा – immuno) – माँ के दूध में पाई जाने वाली प्रतिरक्षी
[C] IgM – सबसे पहले बनने वाली
[E] IgE (e-immuno) -ऐलर्जी (Allergy) क्रियाओं में हिस्सा लेती है।

• रक्त में सर्वाधिक मात्रा में पाई जाने वाली प्रोटीन एल्बूमिन (4-5%)
• रक्त का थक्का बनाने में 13 कारक सहायक होते है।
• प्लाज्मा में से रक्त का थक्का बनाने वाले कारक अलग करने पर प्राप्त तरल सीरम कहलाता है (प्लाज्मा – रक्त स्कंदक कारक = सीरम )

रक्त का थक्का बनाने में सहायक तत्व – कैल्सियम

रक्त प्लाज्मा में हिपेरिन (कार्बोहाइड्रेट) पाया जाता है जो एक प्राकृतिक प्रति स्कन्द्ङ्क (Anticoagulant) पदार्थ है।

प्रति स्कन्द्रक – वे पदार्थ जो रक्त का थक्का नहीं बनने देते।

सोडियम ऑक्सलेट, सोडियम सिट्रेट एवं EDTA (Ethylene diamine tetra acetic acid) ब्लड बैंक में प्रतिस्कन्दक (कृत्रिम प्रतिस्कन्दक) की तरह उपयोग में लाये जाते हैं, क्योंकि ये Ca” को बाँध देते हैं। अतः ये किलेटिंग (chelating) एजेन्ट कहलाते हैं। ब्लड बैंक में ब्लड को 2-6 (सामान्यतः 4.4°C) डिग्री सेल्सियस पर रखा जाता है

भोजन करने से पहले रक्त में शुगर लगभग 100 mg/dL, भोजन करने के बाद सामान्य ब्लड शुगर का स्तर 135 और 140 mg/dL के बीच होता है

रुधिर कणिकाएँ (blood corpuscles) रुधिर आयतन का 45% भाग कणिकाएँ होती है। रुधिर कणिकाओं की प्रतिशतता को हिमेटोक्रिट कहते है। ये कणिकाएँ पुरे शरीर में तेरती रहती है एवं इनमे विभाजन की क्षमता ना होने के कारण इन्हें कोशिका की बजाय कणिकाएँ कहना अधिक उचित माना जाता है। यह तीन प्रकार की है-

1. RBC (Red Blood Corpuscles/Erythrocytes)

  • Erythrocyte स्तनधारियों में उभयावतल (Biconcave) वृत्ताकार (Circular) व केन्द्रक रहित होती है।
  • R.B.C का आकर लगभग 7 माइक्रोमीटर (WBC > RBC > Platelets)R.B.C में उत्पत्ति के समय केन्द्रक उपस्थित होता है, लेकिन ये परिपक्वन के दौरान विलुप्त हो जाता है अतः परिपक्व
  • R. B.C केन्द्रक रहित होती है
  • R.B.C में केन्द्रक की अनुपस्थिति और उभयावतल स्वरूप के कारण तलीय क्षेत्रफल बढ़ जाता है, जिससे R. B. C में अधिक मात्रा में Haemoglobin आ सकता है। (प्रत्येक 100 ml रक्त में 12-16 gm हिमोग्लोबिन होता है)
  • अपवाद ऊँट और लामा ऐसे स्तनधारी है, जिनकी R.B.C में केन्द्रक पाया जाता है एनं यह उभयउतल (Biconvex), अण्डाकार (Oval shaped ) होती है। > केन्द्रक के अतरिक्त स्तनधारियों की R.B.C में Mitochondria, गॉल्जीकाय एवं E.R. (Endoplasmic reticulum) भी अनुपस्थित होते है।
  • R.B.C में केवल अनॉक्सी श्वसन होता है, ऑक्सी श्वसन नही अर्थात इसमे केवल ग्लाइकोलिसिस (Glycolysis) पाया जाता है क्रेब्स चक्क नहीं।
  • R.B.C को एरिथ्रोसाइट, R.B.C के निर्माण की प्रक्रिया एरिथ्रोपोइसीस, R.B.C निर्माण को प्रेरित करने वाला

हार्मोन – एरिथ्रोपोइटिन (वृक्क में बनता है), R.B.C निर्माण करने वाले अंग एरिथ्रोपोइटिक अंग कहलाते है जैसे- > भ्रूणीय अवस्था में आरबीसी का निर्माण Yolk Sac, यकृत, थाइमस ग्रन्थि, प्लीहा में

  • नवजात एवं वयस्क में आरबीसी का निर्माण लाल अस्थि मज्जा में होता है।
  • R.B.C का जीवन काल सामन्यतः 120 दिन होता है।
  • R.B.C का अपघटन प्लीहा (Spleen / तिल्ली में होता है इसलिए इसे R.B.C का कब्रिस्तान भी कहते है।
  • R.B.C का कार्य गैसों का परिवहन करना
  • प्लीहा शरीर की सबसे बड़ी लसिका ग्रन्थि होती है जिसे शरीर का Blood Bank भी कहते है।
  • R.B.C की संख्या 45-55 लाख प्रति घन मिमि. (5 मिलियन)
  • R.B.C का लाल रंग हिमोग्लोबिन के कारण होता है। हिमोग्लोबिन ऑक्सीजन से साथ क्रिया कर लाल रंग देता है इसलिए इसे श्वसन वर्णक भी कहते है।
  • Haemoglobin का O3, नाइट्रेट (NO3), कार्बन मोनो ऑक्साइड के कारण ऑक्सीकरण हो जाता है, तथा ऑक्सीकृत Haemoglobin, (Fe³) Methmoglobin कहलाता है।
  • जब हीमोग्लोबिन में नाइट्रेट (NO3) की मात्रा अधिक हो तो शरीर में शुद्ध तथा अशुद्ध रक्त मिश्रित हो जाते हैं। एवं शरीर का रंग नीला पड़ जाता है। इसे ब्लू बेबी सिंड्रोम कहते हैं
  • रक्त समूह की एंटीजन (A एवं B) एवं Rh एंटीजन RBC की सतह पर पायी जाती है।
  • अधिक ऊंचाई पर जाने पर ऑक्सीजन की कमी (हाइपोक्सिया) के कारण RBC की संख्या बढ़ जाती है इसे Polycythemia कहते है। RBC की कमी होना एनीमिया कहलाता है।
  • मलेरिया एवं पीलिया रोग में भी आरबीसी कम होने लगती है।
  • विटामिन B12 की कमी से R.B.C का Size सामान्य से बड़ा होता है और यह अपघटित हो जाती है इसे Macrocyte एनीमिया कहते है।
  • विटामिन B6, B9, एवं B12 RBC के परिपक्वन में सहायक होते है इनकी कमी से एनीमिया हो जाता है।
  • आयरन (Fe) की कमी से RBC का आकर छोटा हो जाता है और यह अपघटित हो जाती है इसे Microcyte एनीमिया कहते है।
  • सिकिल सेल एनिमिया में RBC की आकृति हँसियाकार हो जाती है, यह एक आनुवांशिक रोग है।
  • सबसे बड़ी RBC जंतु जगत में एम्फीयूमा (उभयचर) में पाई जाती है।
  • स्तनधारियों में सबसे बड़ी RBC हाथी में उपस्थित होती है
  • सबसे छोटी RBC कस्तूरी मृग (Musk dear) में पाई जाती है

2. WBC (White Blood Corpuscles/Leucocytes)

  • W.B.C केन्द्रक युक्त रंगहीन कणिकायें होती हैं।
  • वयस्क मानव में इनकी संख्या लगभग 7000 प्रति घन मिमी. होती है।
  • मानव में रक्ताणुओं तथा श्वेताणुओं की संख्या लगभग 600:1 के अनुपात में होती है
  • ये रक्त में पाई जाने वाली सबसे बड़ी कणिकाएं है।
  • इनका आकार भिन्न-भिन्न (सामान्यतः 10-20 माइक्रोमीटर) होता है (माइक्रो 106)
  • इनमे अमिबिय गति पाई जाती है।
  • इनका निर्माण अस्थिमज्जा तथा लसीका ऊतकों में होता है।
  • इनका जीवन काल 4-5 दिनों से कई दिनों तक हो सकता है।
  • W.B.C की संख्या का कम होना ल्यूकोपिनिया कहलाता है (Aids, टाईफाइड)
  • W.B.C की संख्या का बढना लयूकोसाइटोसिस (ल्यूकेमिया ब्लड कैंसर)
  • W.B.C का मुख्य कार्य रोग प्रतिरोधक क्षमता (इम्यूनिटी बढ़ाना)
  • किसी बाहरी तत्व (हानिकारक पदार्थ) के प्रवेश करने पर संख्या में तीव्र वृद्धि करते है।

W.B.C के प्रकार –

1. कणिकामय (न्युट्रोफिल, इओसिनोफिल, बेसोफिल)
2. अकणिकामय (मोनोसाईट, लिम्फोसाईट)

A. कणिकामय श्वेताणु (Granulocyte) –

  • न्यूट्रोफिल इओसिनोफिल बेसोफिल एक
  • इनके कोशिका द्रव्य में विशेष अभिरंजक से अभिरंजित होने वाली कणिकाएँ पायी जाती है।
    इनका केन्द्रक पालियों में विभक्त होता है (बहुकेन्द्रकरूपी), तथा पालियाँ एक दूसरे से जीवद्रव्यी सूत्रों द्वारा जुड़ी रहती है।

a) न्यूट्रोफिल (Neutrophils): इनके कोशिका द्रव्य में सूक्ष्म कण होते हैं जो अम्लीय या क्षारीय दोनों ही प्रकार के अभिरंजकों द्वारा हल्के बैंगनी अभिरंजित हो जाते हैं। इसलिए इन्हें उदासीनरंजी (Neutrophilic) कहते हैं। ये जीवाणुओं को नष्ट करते हैं। न्यूट्रोफिल कोशिकाओं की भित्ति के आर-पार जा सकते है जिसे कोशिकापारण (Diapedesis) कहते हैं। कुल श्वेताणुओं की संख्या का लगभग 62% न्यूट्रोफिल होती है। (संख्या में सबसे ज्यादा पाए जाने वाले श्वेताणु- न्यूट्रोफिल)

  • न्यूट्रोफिल पर बार बॉडी पाई जाती है जिससे लिंग का निर्धारण किया जाता है। (X-1)

b) इओसिनोफिल (Eosinophils): इनके कण अम्लीय अभिरंजक जैसे इओसिन से गहरे लाल या गुलाबी अभिरंजित होते हैं। इनकी कोशिकापारण एवं कोशिकाभक्षण क्षमता कम होती है। परजीवी संक्रमण एवं कुछ एलर्जी प्रतिक्रियाओं के समय इनकी संख्या बढ़ जाती है। इनमें एन्टीहिस्टामिनिक गुण पाया जाता है। कुल श्वेताणु संख्या का 2.5% इओसिनोफिल कोशिकाएँ होती है।

c) बेसोफिल (Basophils):- इनके कण क्षारीय आभिरंजक जैसे मिथाइलीन ब्लू से गहरे नीले अभिरंजित होते हैं। ये हिस्टामिन एवं हिपेरिन उत्पन्न करती हैं। ये कुल श्वेताणुओं की संख्या का लगभग 0.5% होती है

B. कणिकाविहीन श्वेताणु (Agranulocyte): कणिकाविहिन व स्वच्छ कोशिका द्रव्य श्वेताणु। इनमें एक केन्द्रक होता है जो पालियों में विभक्त नहीं होता। इसलिए इन्हें Mononuclear W.B.C कहते है।

  • a) मोनोसाईट ये बड़े आकर की श्वेताणु होती है जिसमे एक बड़ा सेम के बीज की आकृति का केन्द्रक होता है।
  • ये रुधिर से ऊतकों में आ जाती है। ऊतकों में काफी बड़े आकार की (80 माइक्रोमीटर तक) हो जाती हैं तब इन्हें वृहत् भक्षकाणु (Macrophage) कहते हैं। वृहत् भक्षकाणु अत्यधिक भक्षणकारी होते हैं जो कि बड़े कणों एवं जीवाणुओं का भी भक्षण कर सकते हैं।

वृहत् भक्षकाणु एवं न्यूट्रोफिल मिलकर शरीर में भक्षकाणुओं का तंत्र बनाते हैं जो संक्रमण के विरुद्ध प्रतिरक्षा की प्रथम पंक्ति के रूप में कार्य करता है। कुल श्वेताणुओं की संख्या का लगभग 5% ये कोशिकाएँ होती है।

b) लिम्फोसाईट – ये अण्डाकार केन्द्रक युक्त गोल आकृति की कोशिकाएँ होती हैं। (30%)

  • ये भक्षणकारी नहीं होती है। ये T-कोशिकाओं एवं B- कोशिकाओं का निर्माण करती हैं जो प्रतिरक्षा के लिए प्रतिपिण्डों के निर्माण का एवं बाहरी कोशिकाओं को मारने का कार्य करती है T- लिम्फोसाईट का प्रशिक्षण केंद्र थाइमस ग्रन्थि को कहते है।
  • एड्स में सर्वाधिक प्रभावित कणिकाएँ T- लिम्फोसाईट (HTLV human T-lymphotropic virus)

3. बिम्बाणु (Platelets / Thrombocyte)

  • ये सबसे छोटी (2-4 माइक्रोमीटर), केन्द्रक रहित, उभयउतल (Biconvex), अण्डाकार (Oval shaped) रक्त कणिकाएँ होती है। इनका निर्माण अस्थि मज्जा में होता है जीवन काल 5-7 दिन। कार्य रक्त का थक्का बनाना संख्या 1.5-3.5 लाख प्रति मिमि. घन। यकृत एवं प्लीहा में इनका विघटन होता है। इनके निर्माण की प्रक्रिया थ्रोम्बोपोएसिस ।
  • संख्या में अधिक होना थ्रोम्बोसाइटोसिस । संख्या में कमी होना थ्रोम्बोसाइटोपिनिया
  • डेंगू एवं चिकनगुनिया रोग में इनकी संख्या अत्यधिक कम होने लगती है
  • क्रांतिक संख्या (Critical count of thrombocyte) 40,000/mm³ रक्त

रुधिर समूह (Blood Groups

  • RBC की सतह पर पाये जाने वाले विभिन्न प्रकार के प्रतिजन (Antigen- A,B एवं Rh) के आधार पर रक्त को कई भिन्न समूहों (A,B,AB,O) में बाँटा जा सकता है।
  • ऐन्टीजन या एग्लुटिनोजन (Agglutinogen) ऐसे पदार्थ होते हैं जो ऐन्टीबॉडी (Antibody) या एग्लुटिनिन (Agglutinin) नामक पदार्थों का निर्माण प्रेरित करते हैं। ऐन्टीबॉडी रक्त के प्लाजमा भाग में होती है। मनुष्य में ABO प्रकार का रक्त समूह तंत्र पाया जाता है।
  • Antigen तथा Antibody विशेष प्रकार के Glyco-Proteins होते है।
  • इनमें से A, B तथा O की खोज ‘लैंडस्टीनर’ ने की (father of blood groups) तथा AB की खोज डी-कोस्टेलो ने की।

सबसे ज्यादा पाया जाने वाला रक्त समूह 0
सबसे कम पाए जाने वाला रक्त समूह AB

  • सार्वत्रिक दाता (Universal donor) – O में कोई भी एंटीजन नही पाया जाता परन्तु सभी Antibodies उपस्थित होती है। आपातकालीन स्थिति में रक्त देने में इसका प्रयोग किया जाता है।
  • सार्वत्रिक ग्राही (Universal recipient) AB में सभी Antigens (A,B, Rh) उपस्थित परन्तु कोई भी Antibodies नही पाई जाती।

आर एच कारक (Rh factor)

  • लैण्डस्टीनर द्वारा रुधिर वर्गों की पहचान स्थापित्त होने के बावजूद कई बार पाया गया कि, रोगी को उसी के रुधिर वर्ग का रक्ताधान कराने पर भी रक्त समूहन हो जाने से उसकी मृत्यु हो गयी। लैण्डस्टीनर तथा वीनर (1940) ने मकाका रीसस (Macaca rhesus) नामक बन्दर में अनुसंधान कर बताया कि,
  • मनुष्यों में प्रतिजन A तथा B के अतिरिक् एक अन्य प्रतिजन भी उपस्थित होता है। को रीसस (Rhesus) बन्दर में खोजा गया था, इसलिए इसे आर एच कारक (Rh factor) कहा गया।
  • इस प्रतिजन > जिन व्यक्तियों के रुधिर में यह कारक उपस्थित होता है, उन्हें आर एच धनात्मक (Rh+) तथा जिनमें यह (Rh) अनुपस्थित होता है, उन्हें आर एच ऋणात्मक (Rh) कहते हैं।
  • एक अनुमान के अनुसार भारत में 93% (विश्व में 80%) व्यक्ति तथा 7% (विश्व में 20%) Rh- है।
  • समान रुधिर वर्ग किन्तु भिन्न आर एच कारक वाले व्यक्तियों के मध्य रक्ताधान कराने पर भी रुधिर समूहन हो जाने से रोगी की मृत्यु हो सकती है।

गर्भ रक्ताणु कोरकता (Erythroblastosis foetalis):- यदि पिता Rh घनात्मक एवं माता Rh ऋणात्मक हो और एक से अधिकर बार Rh धनात्मक शिशु से युक्त गर्भधारण करती हैं तो Rh कारक के कारण गम्भीर समस्या पैदा हो जाती है। गर्भस्थ Rh+ शिशु से प्रसव के समय Rh ऐन्टीजन माता के रुधिर में प्रवेश कर जाते हैं। माता के रूधिर में इस ऐन्टीजन के कारण एन्टी- Rh ऐन्टीबॉडी उत्पन्न हो जाती है। सामान्यतः ऐन्टीबॉडी इतनी अधिक मात्रा में नहीं होती जो प्रथम बार उत्पन्न शिशु को हानि पहुँचा सके, लेकिन बाद में गर्भधारण की स्थिति में माता के रुधिर से एन्टी Rh ऐन्टीबॉडी अपरा (Placenta) द्वारा गर्भस्थ शिशु के रुधिर में पहुँचकर शिशु के रक्ताणुओं का लयन कर देती है। गर्भस्थ शिशु या नवजात शिशु के इस घातक रोग को इरिथ्रोब्लास्टोसिस फीटेलिस (Erythroblastosis foetalis) कहते हैं। इस रोग से ग्रसित शिशु को ‘रीसस शिशु’ कहते हैं।’

सामान्यतः इसका जन्म समय पूर्व होता है तथा इसमें रक्ताल्पता पाई जाती है। शिशु के सम्पूर्ण रक्त को स्वच्छ रुधिर द्वारा प्रतिस्थापित्त करके शिशु को बचाया जा सकता है। प्रसव से ठीक पूर्व लगभग 72 घण्टे के भीतर Rh माता को ऐन्टी Rh बॉड़ी का इन्ट्रावेनस इन्जेक्शन देकर भी शिशु को बचाया जा सकता है। इसे रोहगम प्रतिरक्षी कहते हैं।

रक्ताधान (Blood transfusion) :- स्वस्थ व्यक्ति (दाता) का रुधिर, रोगी (ग्राही) को दिया जाना रक्ताधान (Blood transfusion) कहलाता है।’

प्रतिरक्षा तंत्र में विशिष्ट प्रकार के प्रतिरक्षी विशिष्ट प्रतिजन के प्रति प्रतिक्रिया दर्शाते हैं इसी कारण सीरम में उपस्थित प्रतिरक्षी, स्वयं के रुधिर वर्ग के अतिरिक्त, अन्य प्रतिजन वाले रुधिर के रक्ताधान का प्रतिरोध करते हैं। जैसे, रोगी (रुधिर ग्राही) का रुधिर वर्ग ‘ए’ (प्रतिजन A) प्रकार का है तो उसके सीरम में उपस्थित प्रतिरक्षी – b प्रकार के होगें। इस व्यक्ति में रुधिर वर्ग ‘बी’ (प्रतिजनB) का रक्ताधान कराने पर रोगी के प्रतिरक्षी इसका प्रतिरोध करते हैं। ऐसी स्थिति में ‘प्रतिजन – प्रतिरक्षी परस्पर क्रिया’ (Antigen- Antibody Interaction) होने से, लाल रुधिर कोशिकाएँ आपस में चिपकने लगती है। इसे रक्त समूहन (Blood agglutination) कहते हैं। इसके कारण, ग्राही की रुधिर वाहिनियों के अवरुद्ध हो जाने से उसकी मृत्यु हो सकती हैं।
रक्त ग्रहण करने वाले के पास दाता के समान एंटीजन होना आवश्यक है।

धनात्मक रक्त समूह वाला व्यक्ति सिर्फ धनात्मक रक्त समूह वाले व्यक्ति को रक्त दे सकता है जबकि ऋणात्मक रक्त समूह वाला व्यक्ति धनात्मक एवं ऋणात्मक दोनों रक्त समूह वाले व्यक्तियों को रक्त दे सकता है।

रक्तदाब (Blood pressure / B.P.):- रक्त के द्वारा धमनियों की दीवारों पर डाला गया दाब रक्त दाब (Blood Pressure) कहलाता है। रक्त दाब को दो अवस्थाओं में नापा जाता है-

1. प्रकुंचन दाब (Systolic Pressure): यह रक्त दाब की ऊपरी सीमा (Higher-limit) है। जो हृदय संकुचन की अवस्था को प्रदर्शित करती है। मनुष्य में यह सीमा 120mm Hg होती है।

2. शिथिलन दाब (Diastolic Pressure):- यह रक्त दाब की निचली सीमा (lower-limit) है। जो हृदय शिचिलन की अवस्था को प्रदर्शित करती है। मनुष्य में यह सीमा 80mm Hg होती है।

  • जिस यन्त्र द्वारा रक्त दाब नापा जाता है उसे “रक्तदाब मापी” या “स्फिग्मोमैनोमीटर” कहते हैं।
  • रक्त दाब मनुष्य में बाजू (arm) की ब्रेकियल धमनी (brachial artery) में नापा जाता है।
  • एक स्वस्थ मनुष्य का रक्त दाब (BP) 120/80mm Hg (सिस्टोलिक / डाईस्टोलिक) होता है
  • सर्वप्रथम स्टीफन हैल्स ने घोड़े में रक्त दाब नापा था।
  • रक्त दाब को अधिवृक्क ग्रन्थि द्वारा नियंत्रित किया जाता है
  • विश्व का पहला मानव हृदय प्रत्यारोपण क्रिस्टियन बर्नार्ड के द्वारा किया गया था।
  • जार्विक-7 एक कृत्रिम हृदय का नाम है।
  • मनुष्य की कलाई में स्थित रेडियल धमनी (Radial artery) में नब्ज महसूस की जाती है। इसे गर्दन की धमनी में भी महसूस किया जा सकता है। इस धमनी की नब्ज को अंकित करने वाला उपकरण “स्फिग्मोग्राफ” कहलाता है।
  • E.C.G. या Electro-cardiography हृदय से सम्बन्धित है।
  • E.E.G. या Electro-encephalography मस्तिष्क से सम्बन्धित है। > C.B.C. या Complete Blood Count – रक्त से सम्बन्धित

हृदय एवं परिसंचरण तंत्र सम्बंधी रोग (Diseases related to heart and circulatory system)

1. उच्च रक्त चाप (Hypertension) :- सामान्य स्वस्थ मनुष्य में क्रमशः प्रकुंचन एवं अनुशिथिलन के समय धमनी में दाब क्रमशः 120 तथा 80 मिमी. Hg के बराबर होता है। जब धमनी रुधिर का प्रकुंचन दाब 140 अथवा उच्च तथा अनुशिथिलन दाब 80 मिमी. Hg से अधिक लगातार बना रहता है, तब इसे उच्च रक्तचाप कहते हैं। उच्च रक्त चाप से हृदय, मस्तिष्क एवं वृक्क पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

2. हृदय धमनी रोग CAD; (Coronary Artery Diseases) :- यह रोग एथिरोकाठिन्य या एथिरोस्क्लेरोसिस के रूप में बताया जाता है। इसमें हृदय पेशी को रक्त पहुँचाने वाली वाहिनियाँ प्रभावित होती हैं। ऐसा धमनियों के अन्दर वसा, केल्शियम के जमाव से होता है। इससे धमनी की गुहा संकरी हो जाती है।

3. हृदयपात (Heart failure):- इस अवस्था में हृदय शरीर विभिन्न भागों को आवश्यकतानुसार रक्त की पर्याप्त आपूर्ति नहीं कर पाता है। हृदय पात हृदय आघात की भाँति नहीं होता है, हृदय आघात में हृदय की धड़कन एक दम रुक जाती है, जबकि हृदयपात में हृदय पेशी को रक्त आपूर्ति अचानक अपर्याप्त हो जाने से क्षति पहुँचती है।

4. हृदयशूल (Angina): इस रोग में हृदय की भित्ति को रक्त सही प्रकार से नहीं मिलता है क्योंकि कोरोनरी धमनी में संकुचन अथवा थक्का बन जाता है। अतः हृदय पेशी को O₂ पर्याप्त मात्रा में नहीं मिलती है। इससे सीने व कंधे में तीव्र दर्द हो जाता

5. मायोकार्डियल इन्फ्राक्शन (Myocardial Infraction) :- इसे हृदय आघात (Heartattack) भी कहते हैं। कोरोनरी धमनी में अवरोध से हृदय पेशियों को पर्याप्त रुधिर नहीं मिलता है जिससे पेशियाँ क्षतिग्रस्त हो जाती हैं और पूरी क्षमता से कार्य नहीं कर पाती हैं।

6. कोरोनरी थ्रोम्बोसिस (Coronary thrombosis):- कोरोनरी धमनी में थक्का बनने से हृदय पेशियों को पर्याप्त रक्त नहीं मिलता है। परिणाम स्वरूप हृदय शूल होता है।

7. हृदय अवरोध (Heart block):- इस रोग में हिस के बन्डल ठीक से कार्य नहीं करते हैं क्योंकि SA node से उत्पन्न आवेग निलय तक नहीं पहुँच पाता है जिसके कारण निलय की गति नहीं होती और परिसंचरण रूक जाता है।

8. रयूमेटिक हृदय रोग (Rheumatic heart disease) :– यह रोग जीवाणु स्ट्रेप्टोकोकस विरिडेन्स के संक्रमण से होता है। इस रोग के कारण हृदय के कपाट ठीक से कार्य नहीं करते हैं और हृदय पेशियाँ कमजोर हो जाती हैं।

पादपो में परिवहन :- पादप मूलों (जड़ों) द्वारा जल और खनिजों को अवशोषित करते हैं। मूलों में मूलरोम होते हैं।

  • वास्तव में, मूलरोम जल में घुले हुए खनिज पोषक पदार्थों और जल के अंतर्ग्रहण के लिए मूल के सतह क्षेत्रफल को बढ़ा देते हैं। मूलरोम मृदा कणों के बीच उपस्थित केशिकात्व जल के संपर्क में रहते हैं।
  • पादपों में मृदा से जल और पोषक तत्त्वों के परिवहन के लिए पाइप जैसी वाहिकाएँ होती हैं। वाहिकाएँ विशेष कोशिकाओं की बनी होती हैं, जो संवहन ऊतक बनाती हैं।
  • जल और पोषक तत्त्वों के परिवहन के लिए पादपों में जो संवहन ऊतक होता है, उसे जाइलम (दारू) कहते हैं। जाइलम चैनलों (नलियों) का सतत् जाल बनाता है, जो मूलों को तने और शाखाओं के माध्यम से पत्तियों से जोड़ता है और इस प्रकार बना तंत्र पूरे पादप में जल का परिवहन करता है
  • पत्तियाँ भोजन का संश्लेषण करती हैं। भोजन को पादप के सभी भागों में ले जाया जाता है। यह कार्य एक संवहन ऊतक द्वारा किया जाता है, जिसे फ्लोएम (पोषवाह) कहते हैं।

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