जैव प्रक्रम (Biological process) – उत्सर्जन (Excretion)

उत्सर्जन :- शरीर में होने वाली उपापचयी क्रियाओं के फलस्वरूप विभिन्न प्रकार के अपशिष्ट पदार्थों का निर्माण होता है जो शरीर के लिए न केवल अनावश्यक होते है बल्कि हानिकारक भी होते है।

  • जैसे- CO₂, जल, नाइट्रोजनी अपशिष्ट पदार्थ (अमोनिया, यूरिया, यूरिक अम्ल) आदि
  • CO₂ एवं जल क्रमशः श्वसन, मल-मूत्र तथा पसीने द्वारा बाहर निकाल दिये जाते हैं।
  • प्रोटीन उपापचय से निर्मित नाइट्रोजनी अपशिष्ट पदार्थों को जटिल रासायनिक क्रियाओं के फलस्वरूप विशेष उत्सर्जी अंगों द्वारा बाहर निकाला जाता है। शरीर के वे अंग जो अपशिष्ट पदार्थों को बाहर निकालने में सहायता करते हैं, उत्सर्जी अंग कहलाते है। उत्सर्जी अंग मिलकर उत्सर्जन तंत्र (Excretory System) का निर्माण करते हैं।

जीवों में मुख्य उत्सर्जी अंग –

  • प्रोटोजोआ (अमीबा), पोरिफेरा (स्पंज), सीलेन्ट्रेटा (हाइड्रा) शरीर की सतह (विसरण) प्लैटीहेल्मिन्थीज
  • (प्लेनेरिया) आदिवृक्कक (प्रोटोनेफ्रिडिया) या ज्वाला कोशिकाएँ
  • एनेलिडा (केंचुआ) नलिकाकार उत्सर्जी अंग वृक्कक (नेफ्रीडिया)
  • आर्थोपोडा / कीट (तिलचट्टों (कॉकरोच)) मैलपीगी नलिकाएं
  • क्रस्टेशियाई प्राणियो (झींगा (प्रॉन))
  • श्रृंगिक ग्रंथियाँ (एंटिनलग्लांड) या हरित ग्रंथियाँ
  • कशेरुकी (मनुष्य) वृक्क (किडनी)
  • मकड़ी में मुख्य उत्सर्जी पदार्थ ग्वानिन होता है।
  • एस्केरिस (गोलकृमि) में रेनेट कोशिका द्वारा उत्सर्जन होता है।
  • बोजेन्स अंग / केबर अंग मोलस्का जीवो का मुख्य उत्सर्जी अंग है।
  • मानव का मुख्य उत्सर्जी अंग वृक्क होता है इसके अतरिक्त मानव में अन्य उत्सर्जी अंग फेफडे (CO₂), त्वचा (पसीना एवं लवण), यकृत (पित्त वर्णक एवं पित्त लवण)
  • मानव का मुख्य उत्सर्जी पदार्थ यूरिया है यूरिया का निर्माण यकृत में यूरिया चक्र या आर्निचिन चक्र द्वारा होता है। आर्निधिन चक्र (ORNITHINE CYCLE):- इसे क्रेब हेन्सलीट चक्र (Kreb – Henseleit Cycle) भी कहते हैं। इस चक्र के दौरान यूरिया के निर्माण में 2NH3 अणु, 1 अणु CO₂ तथा 3ATP अणुओं का उपयोग होता है।

मनुष्य का उत्सर्जन तंत्र (Human Excretory System)

मनुष्य के उत्सर्जी तंत्र में निम्नलिखित संरचनाएं आती है –

(i) एक जोड़ी वृक्क (Kidney)

(ii) एक जोड़ी मूत्र नलिका (Ureters)

(iii) एक मूत्राशय (Urinary Bladder)

(iv) एक मूत्रमार्ग (Urethra)

1. वृक्क (Kidney)

  • मानव में एक जोड़ी गहरे लाल रंग के तथा सेम के बीज जैसी आकृति के वृक्क पाये जाते हैं जो उदर गुहा के पृष्ट भाग में कशेरुक दण्ड (T12, L1-L3) के दोनों ओर स्थित होते हैं।
  • वृक्क तंतुमय संयोजी ऊतक से घिरा रहता है जिसे Renal capsule कहते है। दाहिना वृक्क बायें वृक्क से कुछ नीचे स्थित होता है। दोनों वृक्क एक महीन पेरिटोनियम झिल्ली नुमा वलन द्वारा उदर गुहा की पृष्ठ भित्ति से जुड़े रहते है। वृक्क का निर्माण भ्रूणीय मीसोडर्म से होता है तथा ये पश्चवृक्क या मेटानेफ्रिक प्रकार के होते है।
  • प्रत्येक वृक्क लगभग 10-11 सेमी लम्बा, 5-6 सेमी चौड़ा 2.5-3 सेमी मोटा तथा लगभग
  • वृक्क का बाहरी तल उत्तल (Convex) तथा भीतरी तल अवतल (Concave) होता है।
  • 120-170 ग्राम होता है।
  • अवतल सतह की ओर गड्ढे जैसी एक रचना होती है, जिसे वृक्क नाभि या हाइलम (Hilum) कहते हैं।
  • हाइलम वाले भाग से वृक्क धमनी (Renal artery) तथा तंत्रिका (Nerve) वृक्क में प्रवेश करती है
  • वृक्क शिरा (Renal vein), लसिका वाहिनी (Lymph duct) तथा मूत्रवाहिनी (Ureter) वृक्क से बाहर निकलती है •वृक्क के ऊपरी छोर को अधिवृक्क (Adrenal) नामक अन्तः स्रावी ग्रंथि टोपीनुमा आकार में ढ़के रहती है।
  • वृक्क की अनुदैर्ध्य काट में हाइलम विस्तारित चपटी, कीट के आकार का एक अवकाश बनाती है जिसे पेल्विस कहते हैं। पेल्विस वृक्क के अंदर जाकर शाखाओं में विभाजित होता है जिसे पुटक (calyx) कहते हैं।
  • पेल्विस पूर्ण रूप से वृक्क ऊतक के द्वारा घिरा रहता है। वृक्कीय मध्यांश के शंक्वाकार पिरामिड वृक्कीय पेल्विस में फैले रहते हैं जिन्हें मध्यांश पिरामिड या वृक्कीय पिरामिड (8-12) कहते है।
  • वल्कुट भाग पिरमिड के बीच फैलकर वृक्क स्तम्भ बनाते हैं जिन्हें बरटिनी के स्तम्भ कहते हैं। स्तनी वृक्क की कार्यरत इकाई नेफ्रॉन या वृक्क नलिका कहलाती है, इनकी संख्या प्रत्येक वृक्क में लगभग 10 लाख (1 मिलियन) होती है। यह वृक्कीय पिरामिड में फैली रहती है। पिरामिड में फैले प्रत्येक नेफ्रॉन के द्वारा मूत्र का निर्माण होता है जो संग्राहक नलिका में आता है जहां से यह एक पैपीला के द्वारा पुटक (calyx) में चला जाता है।

2. मूत्र वाहिनियाँ (Ureters)- प्रत्येक वृक्क की नाभि (Hilum) से मोटी व पेशीय भित्ति की बनी लम्बी, संकरी नलिका निकलती है इसे मूत्र वाहिनी (Ureter) कहते है।

  • इसका वृक्क में स्थित प्रारम्भिक भाग चौड़ा व कीपनुमा होता है, जिसे वृक्क श्रोणि (Pelvis) कहते है।
  • पैल्विस से प्रारम्भ होकर दोनों मूल वाहिनियाँ नीचे की ओर जाकर मूत्राशय में खुलती हैं।
  • मूत्र वाहिनियों की भित्ति मोटी एवं पेशीय होती है।
  • ये पेशियाँ वाहिनियों में मूत्र को आगे बढ़ाने के लिए क्रमाकुंचक तरंगें उत्पन्न करती है।

3. मूत्राशय (Urinary bladder)- यह थैले के समान एक पेशीय संरचना है, जिसमें मूत्र का स्थाई रूप से संग्रह किया जाता है। इसकी भित्ति में तीन स्तर पाए जाते है-

बाह्यस्तर- पेरीटोनियम का सीरोसा स्तर, मध्य अरेखित पेशी (अनेच्छिक पेशी) स्तर तथा आन्तरिक श्लेष्मिक स्तर ।

  • मूत्राशय शंकुरूपी (नाशपती जैसा) होती है जिसका ऊपरी भाग चौड़ा तथा निचला भाग संकरा होता है।
  • संकरा भाग एक छिद्र द्वारा मूत्रोजनन मार्ग (Urethra) में खुलता है।
  • इस छिद्र में रेखित पेशी (एच्छिक) की बनी अवरोधनी (Sphincter) पायी जाती है।
  • मूत्राशय नर में मलाशय (Rectum) के आगे तथा मादा में योनि (Vagina) के ठीक ऊपर पाया जाता है।
  • मूत्राशय में 700-800 मि.लि. मूत्र का संग्रह किया जा सकता है।

4. मूत्र मार्ग (Urethra)- मूत्राशय की ग्रीवा से एक पतली नलिका निकलती है जिसे मूत्रमार्ग (Urethra) कहते है। मूत्र मार्ग द्वारा मूत्र शरीर से बाहर निकलता है।

  • मूत्र मार्ग पर अवरोधनी पेशी (Sphincter muscle) उपस्थित होती है जो सामान्यतः मूत्र मार्ग को कसकर बंद रखती है। मूत्र त्याग के समय अवरोधनी शिथिल हो जाती है, जिससे मूत्र आसानी से बाहर निकल जाता है।
  • पुरुषों में मूत्र मार्ग लगभग 15-20 सेमी. लम्बा होता है ओर शिश्र में होकर गुजरता है। इसमें होकर मूत्र व वीर्य दोनों ही बाहर निकलते है। स्त्रियों में मूत्र मार्ग लगभग 4 सेमी लम्बा होता है तथा इसमें केवल मूत्र ही बाहर निकलाता है।

नेफ्रोन की संरचना :-

  • नेफ्रोन उत्सर्जन / वृक्क की संरचनात्मक एवं क्रियात्मक इकाई है
  • नेफ्रोन में मूत्र का निर्माण होता है

• इसमें निम्न भाग होते है –

( 1) मैल्पीगी काय
(2) ग्रीवा
(3) समीपस्थ कुण्डलित नलिका
(4) हेनले का लूप
( 5) दूरस्थ कुण्डलित नलिका
(6) संग्रह नलिकाएँ

( 1) मैल्पीगी काय (Malpighian body)– प्रत्येक वृक्क नलिका का अग्र भाग मैल्पीगी काय कहलाता है जो दो भागों का बना होता है- (a) बोमन संपुट, (b) केशिका गुच्छ

(a) बोमन संपुट (Bowman’s capsule) – यह एक प्यालेनुमा संरचना होती है जिसमें केशिका गुच्छ धंसा रहता है। बोमन संपुट की भित्ति महीन व द्विस्तरीय होती है। ये स्तर शल्की उपकला के बने होते है। इनके आंतरिक स्तर में विशेष प्रकार की कोशिकाएँ पायी जाती हैं जिन्हें पदाणु या पोडोसाइट्स (Podocytes) कहते है।

केशिका गुच्छ (Glomerulus) – बोमन सम्पुट की गुहा में केशिका गुच्छ पाया जाता है। वृक्क धमनी की अभिवाही धमनिका (Afferent arteriole) केशिका गुच्छ में रुचिर लाती है। व अपवाही धमनिका (Efferent arteriole) रूधिर बाहर ले जाती है। अभिवाही धमनिका 50 शाखाओं में विभक्त होकर केशिका गुच्छ का निर्माण करती है। अभिवाही धमनिका का व्यास अपवाही धमनिका की अपेक्षा अधिक होता है। कोशिकाओं की भित्ति एण्डोथिलियम की बनी होती है। रुधिर कोशिकाओं की एण्डोथिलियम व बोमन संपुट की एप्पिथिलियम मिलकर निस्यंदन स्तर का कार्य करती है।

(2) ग्रीवा (Neck) – यह भाग बोमन सम्पुट के पीछे छोटी-सी संकरी नलिका की तरह होता है।

(3) समीपस्थ कुण्डलित नलिका (Proximal convoluted tubule)- यह संरचना ग्रीवा के पीछे लम्बी, मोटी व कुण्डलित नलिका है। यह घनाकार उपकला से आस्तरित रहती है तथा इसके आंतरिक किनारों पर अनेक सूक्ष्मांकुर पाये जाते हैं जो मिलकर खुश बार्डर (Brush border) बनाते है। सूक्ष्माकुरों के कारण अवशोषण का तल बढ़ जाता है। इन कोशिकाओं में माइट्रोकोन्ड्रिया की संख्या भी अधिक होती है जो सक्रिय अवशोषण हेतु ऊर्जा प्रदान करते है। इस भाग में केशिका गुच्छीय निस्यन्द का दो तिहाई भाग पुनः अवशोषित कर लिया जाता है।

(4) हेनले का लूप (Henle’s loop)- यह वृक्क नलिका के मध्य का तथा समीपस्थ नलिका के पीछे स्थित पतला एवं U आकृति का नालाकार भाग होता है जिसे हेनले का लूप कहते हैं। यह दो भुजाओं में विभेदित रहती है- अवरोही भुजा (Descending limb) तथा आरोही भुजा (Ascending limb)। समीपस्थ कुण्डलित नलिका अवरोही भुजा में खुलती है। अवरोही भुजा शल्की उपकला द्वारा आस्तरित रहती है। आरोही भुजा दूरस्थ कुण्डलित नलिका में खुलती है। व इसकी भित्ति मोटी होती है व घनाकार उपकला द्वारा आस्तरित रहती है।

(5) दूरस्थ कुण्डलित नलिका (Distal convoluted tubule)- हेनले के लूप की आरोही भुजा दूरस्थ कुण्डलित नलिका में खुलती है जो वृक्क के वल्कुट भाग में स्थित होती है। यह भाग भी समीपस्थ कुण्डलित नलिका के समान घनाकार उपकला द्वारा आस्तरित रहता है इनकी कोशिकाओं में सूक्ष्मांकुर नहीं पाये जाते हैं।

(6) संग्रह नलिकाएँ (Collecting tubules) – वृक्क नलिका की दूरस्थ कुण्डलित नलिका संग्रह नलिका में खुलती है। प्रत्येक संग्रह नलिका में कई वृक्क नलिकाएँ (नेफ्रोन) खुलती हैं। बहुत सी संग्रह नलिकाएँ मिलकर एक मोटी प्रमुख संग्रह नलिका का निर्माण करती हैं। जिसे बेलिनाई की वाहिनी (Duct of Bellini) कहते है।

  • ये नलिकाएँ वृक्क श्रोणि (Pelvis) में खुलती है जो मूत्रवाहिनी का चौड़ा कीपनुमा भाग होता है। संग्रह नलिकाएँ वृक्क के पिरैमिड में स्थित होती हैं।

मूत्र निर्माण :- मूत्र का निर्माण वृक्कों में होता है। इसमें तीन प्रक्रियाएँ सम्मिलित होती हैं, 1 ग्लोमेरूलर निस्यंदन (Glomerular filtration) 2 पुनरवशोषण (Reabsorption) 3 नलिकीय स्त्रवण (Tubular secretion)

(1) परानिस्यन्दन (Ultrafilteration)- बोमन सम्पुट वृक्क नलिका में एक सूक्ष्म छलनी की भाँति कार्य करता है इसमें अभिवाही धमनिका (Afferent arteriole) यूरिया युक्त रुधिर लाती है और अपवाही धमनिका (Efferent arteriole) इससे रूधिर बाहर ले जाती है।

  • केशिकागुच्छ की कोशिका भित्ति में लगभग 0.1um व्यास के असंख्य छिद्र होते हैं, जिससे छिद्रित झिल्ली की पारगम्यता सामान्यतः रुधिर केशिकाओं की तुलना में 100 से 1000 गुना अधिक होती है। प्लाज्मा में घुले पदार्थ इन छिद्रों में से छनकर निकल सकते है। केशिका गुच्छ (Glomerulus) में आने वाली अभिवाही धमनिका, अपवाही धमनिका की तुलना में अधिक व्यास की होती है। इसलिए इसमें रुधिर तेज गति से आता है लेकिन बात जाते समय उतनी तेजी से नहीं जा पाता है। केशिका गुच्छ में रुधिर कणिकाएँ, प्रोटीन जैसे पदार्थ नहीं छान पाते है। केशिका गुच्छ से छना हुआ प्लाज्मा ग्लोमेरुलर निस्यंद (Glomerular filterate) कहलाता है। यह तरल बोमर सम्पुट की गुहा में आ जाता है। केशिका गुच्छ की रुधिर कोशिकाओं से उत्सर्जी तथा अन्य उपयोगी पदार्थों का छनकर बोमन सम्पुट की गुहा में जाने की क्रिया परानिस्पंदन (Ulfrafiletration) कहलाती है।

(2) वरणात्मक पुनरावशोषण (Selective reabsorption)- परानिस्यंदन क्रिया से उत्पन्न ग्लोमेरुलर निस्यंद में यूरिया, यूरिक अम्ल, क्रियेटिनिन आदि उत्सर्जी पदार्थ के साथ ग्लूकोज, ऐमीनो अम्ल, कुछ वसीय अम्ल, विटामिन, जल तथा अन्य उपयोगी लवण भी होते हैं। निस्यंद में रुचिर के जल का लगभग 95% भाग छनकर आ जाता है, किन्तु इसका लगभग 0.8% भाग ही मूत्र में परिवर्तित होकर बाहर निकलता है। इसमें पाये जाने वाले लाभदायक पदार्थों जैसे ग्लूकोज, विटामिन, अमीनो अम्ल आदि का वृक्क नलिकाओं द्वारा रुधिर में पुनरावशोषण कर लिया जाता है। वृक्क नलिकाओं से लाभदायक पदार्थों का पुनः रुधिर में पहुँचना वरणात्मक पुनः अवशोषण कहलाता है।

(3) स्रावण (Secretion) रुधिर से कुछ हानिकारक उत्सर्जी पदार्थ जैसे रंगा पदार्थ (Pigments), कुछ

औषधियों, यूरिक अम्ल, हिपूरिक अम्ल आदि परानिस्पंदय के समय ग्लोमेरूलर निस्येद में नहीं छन पाते हैं। हेनले के लूप तथा समीपस्थ व दूरस्थ कुण्डलित नलिकाओं की उपकला कोशिकाएँ इन अपशिष्ट पदार्थों को सक्रिय अभिगमन द्वारा वृक्क नलिकाओं की गुहा में मुक्त करती रहती है। इस प्रक्रिया को नलिकीय स्रावण कहते है।

मूत्र का संगठन – मनुष्य सामान्यतः एक दिन में 1-1.5 लीटर मूत्र का उत्सर्जन करता है जिसके सामान्य घटक निम्र है > 95% जल, 2.5% यूरिया, 2% लवण >5%

अन्य पदार्थ (हिप्युरिक अम्ल, यूरिक अम्ल, विटामिन C, क्रिएटिनिन, अमोनिया)

  • मूत्र के असामान्य घटक शर्करा (ग्लूकोज), कीटोन बॉडीज, रक्त, प्रोटीन और पित्त मूत्र के असामान्य घटक है। > आमतौर पर ग्लूकोज सामान्य मूत्र में अनुपस्थित रहता है। लेकिन जब रक्त में ग्लूकोज का स्तर ग्लूकोज की वृक्कीय सीमा (160-180 मिलीग्राम / डीएल) से ज्यादा हो जाता है, तो ग्लूकोज मूत्र में आने लगता है। मूत्र में ग्लूकोज की उपस्थिति को ग्लूकोसुरिया कहा जाता है और आमतौर पर डायबिटीज मेलीटस (मधुमेह) का यह संकेत होता है।
  • डायबिटीज मेलीटस (मधुमेह) अग्नाशय पन्धि से स्त्रावित इन्सुलिन की कमी से होता है। डायबिटीज इन्सिपिड्स (मूत्रलता) पीयूष ग्रन्थि से स्त्रावित ADH (एंटी डाईयूरेटिक हार्मोन / बेसोप्रेसिन) की कमी से होता है
  • डाईयुरेटिक पदार्थ (चाय, कॉफी, शराब) शरीर में जल के उत्सर्जन को बढ़ाते है जबकि ADH हार्मोन जल के अवशोषण को बढ़ा कर जल की कमी को रोकता है।
  • यूरिया की सर्वाधिक मात्रा यकृत-शिरा में पायी जाती है (क्योंकि यूरिया यकृत में निर्मित होता है।)
  • यूरिया की निम्नतम मात्रा वृक्कीय शिरा में होती है (क्योंकि यूरिया मूत्र के साथ वृक्क से निष्कासित हो जाता है।) > मूत्र का पीला रंग युरोक्रोम वर्णक कारण
  • मूत्र की pH-4.6-8 (सामान्यतः 6)
  • मूत्र में गंध युरिनोइड के कारण
  • रुधिर अपोहन (Haemodialysis) वृक्क जब अपना कार्य करना बन्द कर देते हैं तो रक्त में यूरिया की मात्रा (सामान्यतः 10-20 mg/dl) बढ़ जाती है (30 mg/dl से अधिक)। इस अवस्था को यूरेमिया (Uremia) कहते हैं। यूरिया व अन्य अपशिष्ट पदार्थों को शरीर से बाहर निकालने के लिए कृत्रिम वृक्कीय युक्ति की आवश्यकता पड़ती है। अतः इस प्रक्रिया को रक्त अपोहन (Haemodialysis) कहा जाता है।
  • वृक्क के कार्य – जल तथा लवणों का नियमन, उत्तक द्रव सांद्रता का नियमन, अम्ल-क्षार संतुलन, धमनीय रक्त दाब का नियमन, उपापचयी अपशिष्ट पदार्थ तथा बाहरी रसायनों का नियमन, Erythropoeitin तथा Renin का स्त्राव ।

उत्सर्जन संबंधी रोग (Disorders Related to Excretion)

मानव में उत्सर्जन क्रिया में अनियमितता होने पर कई रोग उत्पन्न हो जाते है। ऐसे कुछ प्रमुख रोग निम्नलिखित है- 1. यूरेमिया (Uremia) जब रक्त में यूरिया की मात्रा 10-30mg/100ml से अधिक हो जाती तो यह अवस्था यूरेमिया कहलाती है। रुधिर में अत्यधिक यूरिया के संग्रह से रोगी की मृत्यु हो जाती है।

2. गॉउट (Gout) – यह एक आनुवंशिक रोग है जिसमें रुधिर यूरिक अम्ल की मात्रा अधिक हो जाती है जो कि संधियों तथा वृक्क ऊतकों में जमा हो जाता है। यह रोग निर्जलीकरण, उपवास व यूरेटिक से बढ़ता है।

3. वृक्क पथरी (Kidney stones) सामान्यतः वृक्क श्रोणि (Renal pelvis) में यूरिक अम्ल के क्रिस्टल, कैल्सियम के आक्सेलेट, फॉस्फेट लवण इत्यादि पथरी के रूप में जमा हो जाते है। इससे रोगी को दर्द तथा मूत्र त्याग में बाधा उत्पन्न होती है।

4. ब्राइट का रोग या नेफ्रिटिस (Bright’s disease or nephritis) – यह रोग ग्लोमेरुलस (केशिका गुच्छ) में स्ट्रेप्टोकोकाई जीवाणु के संक्रमण से उत्पन्न होता है। इसके कारण ग्लोमेरूलस में सूजन आ जाती है तथा इसकी झिल्लियाँ अत्यधिक पारगम्य हो जाने से रक्ताणु (RBC) व प्रोटीन भी छनकर निस्यंद में आ जाते है। नेफ्रिटिस का इलाज नहीं होने पर ऊतकों में तरल जमा हो जाने से टाँगे फूल जाती है इसे एडीमा या ड्रोप्सी (Edema or Dropsy) कहते है।

5. ग्लाइकोसूरिया (Glycosuria) मूत्र में शर्करा की उपस्थिति व उत्सर्जन ग्लाइकोसूरिया कहलाता है। • यह रोग इन्सुलिन हॉर्मोन की कमी से होता है। यह रोग अवस्था डाइबिटीज मेलिटस कहलाती है।

6. डिसयूरिया (Disurea) मूत्र त्याग के समय दर्द की अवस्था को डिसयूरिया कहते हैं।

7. पोलीयूरिया / बहुमूत्रता नेफ्रोन के द्वारा जल का पुनः अवशोषण न हो पाने से मूत्र का आयतन बढ़ने की अवस्था है।

8. सिस्टिटिस – इसमें जीवाणु के संक्रमण, रासायनिक या यांत्रिक क्षति के कारण मूत्राशय में सूजन आ जाती है।

9. डायबिटीज इन्सिपिडस (Diabetes Insipidus)- ऐन्टी डाईयूरेटिक हॉर्मोन (ADH) के अल्पस्रावण के कारण दूरस्थ कुण्डलित नलिका व संग्राहक नलिका में जल का अवशोषण नहीं हो पाता है। इससे मूत्र का आयतन बढ़ जाता है इसके कारण रोगी बार-बार अधिक मात्रा में मूत्र त्याग करता है।

10. ओलीगोयूरिया (Oligourea)- इस रोग में मूत्र की मात्रा सामान्य से बहुत कम बनती है।

11. प्रोटीन्यूरिया (Proteinurea)- मूत्र में प्रोटीन की मात्रा सामान्य से अधिक होना प्रोटीन्यूरिया कहलाता है।

12. एल्ब्यूमिनयूरिया (Albuminurea)- इस रोग के कारण मूत्र में एल्ब्यूमिन प्रोटीन की मात्रा बढ़ जाती है।

13. कीटोन्यूरिया (Ketonuria) मूत्र में कीटोनकाय जैसे ऐसीटो ऐसीटिक अम्ल आदि की मात्रा का बढ़ना

14. हीमेटोयूरिया (Haematourea) मूत्र के साथ RBC का निष्कासित होना हीमेटोयूरिया कहलाता है।

15. हीमोग्लोबिन यूरिया (Haemoglobinurea) मूत्र में हीमोग्लोबिन की उपस्थिति हीमोग्लोबिन यूरिया कहलाता है।

16. पाइयूरिया (Pyurea) मूत्र में मवाद कोशिकाओं (Pus cells) का पाया जान पाइयूरिया कहलाता है।

17. पीलिया (Jaundice) मूत्र में पित्त वर्णकों का अत्यधिक मात्रा में पाया जाना पीलिया कहलाता है। यह प्रायः हिपेटाइटिस या पित्त नलिका में रुकावट के समय दिखाई देता है।

पाद‌पों में उत्सर्जन (Excretion in Plants): पौधे मृदा से जल का अवशोषण कर रसारोहण द्वारा इसको विभिन्न अंगों तक पहुँचाते हैं। पौधों द्वारा जल की अवशोषित मात्रा उसकी अपनी आवश्यकता से बहुत अधिक होती है। पौधे अपनी उपापचयी क्रियाओं में अवशोषित जल की कुछ मात्रा का उपयोग कर शेष जल को वाष्प के रूप में उड़ा देते हैं। पौधों के विभिन्न वायव अंगों द्वारा जल के वाष्प रूप में त्यागने की क्रिया को वाष्पोत्सर्जन (Transpiration) कहते हैं।

वाष्पोत्सर्जन के प्रकार (Types of Transpiration):- वाष्पोत्सर्जन पौधे के मूल तंत्र (जड़ों) के अतिरिक्त किसी भी अन्य भाग से हो सकता है। वाष्पोत्सर्जन मुख्यतः तीन प्रकार के होते हैं –

1. रंध्रीय वाष्पोत्सर्जन (Stomatal transpiration) :- पत्तियाँ वाष्पोत्सर्जन के प्रमुख अंग हैं। पत्तियों की सतह पर रंच (Stomata) उपस्थित होते हैं, ये अधिकांश पत्तियों के नीचे पाए जाते हैं इनसे रंध्रीय वाष्पोत्सर्जन होता है। वाष्पोत्सर्जन की कुल मात्रा का 50-97% अधिकांश भाग इसी विधि द्वारा होता है।

2. उपत्वचीय वाष्पोत्सर्जन (Cuticular transpiration): अधिकांश मरुद्भिद पौधों की पर्णे उपत्वचा या क्यूटिकल (Cuticle) से ढकी होती हैं। क्यूटिकल सामान्यतः जल के प्रति अपारगम्य होती है। कुछ स्थानों पर यह बहुत पतली अथवा टूटी हुई होती है जहाँ से जल की वाष्प रूप में थोड़ी मात्रा में हानि होती है। इस प्रकार होने वाले वाष्पोत्सर्जन को क्यूटिक्यूलर वाष्पोत्सर्जन भी कहते है। वाष्पोत्सर्जन की कुल मात्रा का 3-10% इस विधि से होता है।

3. वातरन्ध्रीय वाष्पोत्सर्जन (Lenticular transpiration) :- काष्ठीय स्तम्भों व कुछ फलों की सतह पर छोटे-छोटे

  • छिद्र होते हैं जिन्हें वातरन्ध्र (Lenticels) कहते हैं। कुछ वातावरणीय दशाओं में वातरन्ध्रों से भी जल वाष्प निकलती है जिसे वातरन्ध्रीय वाष्पोत्सर्जन कहते हैं। यह कुल वाष्पोत्सर्जन का केवल 0.1% (सबसे कम होता है
  • रन्ध्र दो वृक्काकार कोशिकाओं से बना होता है जिन्हें द्वार कोशिकाएं (Guard cells) कहते हैं। द्वार कोशिकाएं इस प्रकार व्यवस्थित होती हैं कि इनके बीच एक छिद्र बनता है जिसे रंध्रीय छिद्र (Stomatal pore) कहते हैं। द्वार कोशिकाओं के चारों ओर स्थित कोशिकाएँ सहायक कोशिकाएँ (Subsidiary cells) कहलाती है
  • सक्रिय पोटैशियम आयन स्थानान्तरण सिद्धांत (Active Potassium ion transport theory) – यह रंध्री के खुलने व बंद होने का सर्वमान्य सिद्धांत है। यह सिद्धांत जापानी वैज्ञानिक इमामूरा तथा फ्यूजीनो ने 1959 में प्रतिपादित किया तथा लेविट (1974) ने रुपान्तरित किया।
  • इस सिद्धांत के अनुसार प्रकाश के दौरान (दिन में) द्वार कोशिकाओं में मैलिक अम्ल बनता है जो वियोजित होकर मैलेट व हाइड्रोजन आयन (H*) बनाता है। पौटेशियम आयन (K) समीपवर्ती कोशिकाओं से द्वार कोशिका में प्रवेश करते है व H’ आयन द्वार कोशिकाओं से बाहर निकलते हैं। द्वार कोशिका में पौटेशियम आयन (K) मैलेट से क्रिया करते है जिससे पौटेशियम मैलेट बनता है जो द्वार कोशिकाओं की परासरण सान्द्रता को बढ़ाता है। अतः परासरण के कारण जल का प्रवाह द्वार कोशिकाओं में होता है जिससे वे स्फीत (फूल जाती है) हो जाती है और रंध्र खुल जाते हैं। रात्रि में (अंधेरे में) प्रकाश संश्लेषण नहीं होता अतः द्वार कोशिकाओं में CO₂ की सान्द्रता बढ़ जाती है। मैलिक अम्ल स्टार्च में परिवर्तित हो जाता है जिससे द्वार कोशिकाओं की परासरण सान्द्रता कम हो जाती है। अतः बहिः परासरण के कारण जल बाहर प्रवाहित होता है व द्वार कोशिकाएँ श्लथ अवस्था में आ जाती है। इस कारण रंध्र बंद हो जाते है।

परासरण : विलायक अथवा जल के अणुओं का अर्थ पारगम्य झिल्ली द्वारा अपनी उच्च सांद्रता से निम्न सांद्रता की ओर अभिगमन होता है। इस प्रक्रिया को परासरण कहते हैं। परासरण दो प्रकार का होता है 1 अंतः परासरण 2 बही परासरण 1 अंतः परासरण : जब किसी कोशिका को अल्प पराश्रित विलयन (Hypotonic Solution ऐसा घोल जिसकी सांद्रता कोशिका रस की सांद्रता से कम हो) में डाला जाता है तो जल के अणु अल्प पराश्रित विलयन से कोशिका रस में प्रवेश करते हैं। इस क्रिया को अंतः परासरण कहा जाता है। उदाहरण के लिए किसमिस को जल में डालने पर खुलना।

2 बही परासरण :- यदि किसी कोशिका को अति परासरित विलयन (Hypertonic Solution ऐसा घोल जिसकी सांद्रता कोशिका रस की सांद्रता से अधिक हो) में डाला जाता है तो जल के अणु कोशिका रस से विलयन में प्रवेश करते हैं अर्थात कोशिका से बाहर निकलते हैं। इस प्रक्रिया को बही परासरण कहते हैं। उदाहरण के लिए अंगूर अधवा कोशिका का सिकुड़ना।

• जब कोशिका रस की सांद्रता एवं विलयन की क्षमता समान होती है तो ऐसे विलयन को सम परासरी विलयन (Isotonic solution) कहते हैं। जिसमें कोशिका को रखने पर किसी प्रकार का परासरण नहीं होता है।

बिन्दु – स्वाव (Guttation) :- यदि आप प्रातःकाल पीपल के वृक्ष के नीचे खड़े हों तो आपको जल की सूक्ष्म बूंदों का आपके ऊपर गिरने का अनुभव होगा। यह इस वृक्ष के पर्णों से निकलने वाला जल है। इसी प्रकार टमाटर, दूब घास आदि में पर्ण के किनारे या सिरों पर जल बून्दों के रूप में बाहर निकलता है। इस क्रिया को बिन्दु – स्त्राव कहते हैं। इन पौधों में बिन्दु स्त्राव के लिए विशेष जल- रन्ध्र (Hydathodes) पाये जाते हैं। ये पर्ण की शिराओं के अन्तिम सिरों पर होते हैं। प्रत्येक सूक्ष्म रन्ध्र, एक छोटी गुहिका में खुलता है। इस गुहिका के चारों ओर पतली भित्ति की कोमल मृदूतक कोशिकाएं होती हैं।

• बिन्दु स्त्राव अधिक अवशोषण एवं कम वाष्पोत्सर्जन की अवस्था में सबसे अधिक होता है। जल बूंदों के साथ, कुछ घुलित अपशिष्ट पदार्थ भी बाहर निकलते हैं जो कि सूख कर पपड़ी के रूप में रन्ध्र के आस-पास जम जाते हैं।

रसस्राव (Bleeding) :- पौधे के कटे या क्षतिग्रस्त भाग से रस (Sap) का बाहर आना रसनाव कहलाता है। पौधों की जाइलम वाहिकाओं में रस मूल दाब के कारण धनात्मक तनाव में रहता है। जाइलम वाहिकाओं के कटने अथवा क्षतिग्रस्त होने पर इसका रिसाव बाहर होने लगता है। रबर के वृक्ष से इस प्रकार के रिसाव को लैटेक्स (Latex) भी कहते है जिससे रबर बनता है।

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