आनुवंशिकी (Genetics)
- जीव विज्ञान की वह शाखा जिसमें सजीवों के लक्षणों की आनुवंशिकता (Heredity) एवं विभिन्नताओं (Variations) का अध्ययन किया जाता है, उसे आनुवंशिकी (Genetics) कहते हैं
- आनुवंशिकी का जनक (Father of Genetics)- ग्रेगर जॉन मेण्डल (1822-1884)
- आनुवांशिकी (Genetics) शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम विलियम बेटसन (William Bateson) ने 1905 में किया था। इस शब्द की उत्पत्ति ग्रीक भाषा के शब्द जीन (Gene) से हुई है। जिसका अर्थ होने’ या ‘वृद्धि करने’ से है (to become or to grow)।
- सजीवों में लैंगिक जनन की किया के समय युग्मकों द्वारा विभिन्न विशेषकों (Traits) या लक्षणों का पीढ़ी दर पीढ़ी संचरण (Transmission) होता रहता है। इन लक्षणों को आनुवंशिक लक्षण (Hereditary characters) कहते हैं। इन आनुवंशिक लक्षणों का जनक पीढ़ी (Parental generation) से संतति पीढ़ी (Offspring generation) में इवानविधिक सहया आनुवंशिकता (Heredity) कहलाता है। हेरिडिटी (Heredity) शब्द का प्रतिपादन संचार ने किया।
- लैगिक जनन के दौरान जीन विनिमय (Crossing over) एवं उत्परिवर्तन (Mutation) होने के कारण एक ही जाती के सजीवों के मध्य परस्पर विभिन्नताएँ (Variations) पायी जाती हैं।
आनुवांशिकी शब्दावली (Genetics terminology)
1. जीन (Gene) – वह कारक जो किसी एक लक्षण को नियंत्रित करता है, उसे जीन कहते हैं। मेण्डल द्वारा उपयोग में लिए गए कारक (Factors) शब्द को जॉहनसन ने जीन नाम दिया। जीन को आनुवंशिकी की इकाई कहते हैं।
- जीन का सर्वप्रथम कृत्रिम संश्लेषण हरगोविंद खुराना ने किया था
2. युग्मविकल्पी (Allelomorph or allele) – किसी एक लक्षण को नियंत्रित करने वाले जीन के दो विपर्यासी स्वरूपों को युग्मविकल्पी कहते हैं। जैसे पौधे की ऊँचाई को नियन्त्रित करने वाले जीन के दो युग्मविकल्पी T (लम्बापन) वा (बौनापन) है।
3. समयुग्मजी (Homozygous) – जब किसी लक्षण को नियंत्रित करने वाले जीन के दोनों युग्मविकल्पी एक समान हो उसे समयुग्मजी कहते हैं जैसे TT या tt.
4. विषमयुग्मजी (Hetrozygous)– जब किसी लक्षण को नियंत्रित करने वाले जीन के दोनों युग्मविकल्पी असमान हो, उसे विषमयुग्मजी कहते हैं, जैसे – Tt.
5. लक्षणप्ररूप (Phenotype) – किसी सजीव की बाह्य प्रतीति (External appearance) को लक्षणप्ररूप कहते हैं। जैसे – लम्बे पौधे समयुग्मजी (TT) या विषमयुग्मजी (Tt) हो सकते हैं।
6. जीन प्ररूप (Genotype) – किसी सजीव की आनुवंशिकीय रचना (Genetic constitution) को जीन प्ररूप कहते हैं। जैसे – शुद्ध या समयुग्मजी लम्बा (TT) व अशुद्ध या विषमयुग्मजी लम्बा Tt. 7. प्रभावी लक्षण (Dominant characters) – वह लक्षण जो F, पीढ़ी में अपने आपको अभिव्यक्त कर पाता है, प्रभावी लक्षण कहलाता है।
8. अप्रभावी लक्षण (Recessive characters) – वह लक्षण जो F, पीढ़ी में स्वयं को अभिव्यक्त नहीं। अप्रभावी लक्षण कहलाता है। कर पाता है,
9. एक संकर सेकरण (Monohybrid cross) आनुवंशिकी (Genetics)- वह संकरण जिसमें एक लक्षण की वंशागति का अध्ययन किया जाता है, उसे एक संकर संकरण कहते हैं।
10. द्विसेकर संकरण (Dihybrid cross) – आनुवंशिकी (Genetics) वह संकरण जिसमें दो लक्षणों की वंशागति का अध्ययन किया जाता है, उसे द्विसंकर संकरण कहते हैं।
11. त्रिसंकर संकरण (Trihybrid cross) – वह संकरण जिसमें तीन लक्षणों की वशांगति का अध्ययन किया जाता है, उसे त्रिसंकर संकरण कहते है।
12. बहुसंकर संकरण (Polyhybrid cross) – वह संकरण जिसमें कई लक्षणों की वशांगति का अध्ययन किया जाता है, उसे बहुसंकर संकरण कहते हैं।
13. परीक्षण संकरण (Test cross) – वह संकरण जिसमें F. पीढ़ी का संकरण अप्रभावी लक्षण प्ररूप वाले जनक के साथ किया जाता है, परीक्षण संकरण कहलाता हैं।
14. संकरपूर्वज या पश्च संकरण (Back cross) – वह संकरण जिसमें F, पीढ़ी का संकरण दोनों जनकों में से किसी एक के साथ किया जाता है, संकरपूर्वज संकरण कहलाता है।
15. व्युत्क्रम संकरण (Reciprocal cross) – वह संकरण जिसमें ‘A’ पादप (TT) को नर व ‘B’ पादप (tt) को मादा जनक के रूप में प्रयुक्त किया जाता है तथा दूसरे संकरण में ‘A’ पादप (TT) को मादा व ‘B’ (tt) पादप को नर जनक के रूप में प्रयुक्त किया जाता है, उसे व्युत्क्रम संकरण कहते हैं।
16. जनक पीढ़ी (Parental generation) – संतति प्राप्त करने के लिए जिन पौधों को संकरण करवाया जाता है, उन्हें जनक पीढ़ी कहते है।
17. F, पीढ़ी (Frist filial generation) – जनकों के संकरण से प्राप्त प्रथम पीढ़ी को F, पीढ़ी कहते है। 18. F₂ पीढ़ी (Second filial generation) – F, पीढ़ी के संकरण से प्राप्त संतति को F₂ पीढ़ी कहते है।
19. संकरण (Hybridization): विभिन्न प्रजातियों के जनक जीवों के बीच क्रॉस (निषेचन) को संकरण कहते हैं।
20. एकसंकर अनुपात (Monohybrid ratio)- एक संकर संकरण से प्राप्त अनुपात को एकसंकर अनुपात कहते है। F. पीढ़ी में स्वपरागण से F₂ पीढ़ी में 3:1 (प्रभावी अप्रभावी) का लक्षण प्ररूप अनुपात प्राप्त होता है।
21. द्विसंकर अनुपात (Dihybrid ratio) द्विसकर संकरण से प्राप्त अनुपात को द्विसंकर अनुपात कहते है। F, पीढी द्विसंकर क्रॉस से प्राप्त फीनोटाइप अनुपात को द्विसंकर लक्षणप्ररुपी अनुपात कहते हैं। (उदाहरण मेडेलीय क्रॉस में 9:3:3:1)
मेण्डलवाद (Mendelism)
- मेण्डल का जन्म 22 जुलाई 1822 को ऑस्ट्रिया के सिलिसियन (Silision) गाँव में हुआ
- सन् 1842 में दर्शनशास्त्र में डिग्री प्राप्त करने के बाद सन् 1843 में ऑस्ट्रिया के ब्रुन शहर की चर्च में पादरी बने। यहीं पर इन्हें ग्रेगर की उपाधि से सम्मानित किया गया।
- चर्च के उद्यान में मेण्डल ने उद्यान मटर (Garden pea – Pisum sativum) पर सात वर्ष तक संकरण (Hybridization) प्रयोग (1856-1863) किए।
- मेंडल ने हायरेशियम पादप पर भी प्रयोग किए
- इन प्रयोगों के निष्कर्षों को सन् 1865 में ब्रुन सोसाइटी ऑफ नेचुरल हिस्ट्री (Brunn Society of Natural History) के समक्ष शोधपत्र के रूप में प्रस्तुत किया।
- सन् 1866 में इन प्रयोगों को सोसाइटी की वार्षिकी में ‘पादप संकरण पर प्रयोग’ (Experiments on plant hybridization) नामक शीर्षक से प्रकाशित किया गया।
- उनका मूल शोध पत्र जर्मन भाषा में “Versuche uber Pflanzenhybriden” नामक शीर्षक से प्रकाशित हुआ था। मेण्डल द्वारा उद्यान मटर पर किए गए इन प्रयोगों के परिणाम के आधार पर आनुवंशिकता के 3 नियमों (Laws of inheritance) का प्रतिपादन किया गया जिन्हें मेण्डलवाद (Mendelism) भी कहते है।
- 6 जनवरी, 1884 को मेण्डल की मृत्यु हो गई।
मेण्डलवाद की पुनःखोज – लगभग 34 वर्षों तक यह शोध कार्य उपेक्षित रहा लेकिन 1900 में हॉलैंड के ह्यूगो डी ब्रिज (Hugo De Vries), जर्मनी के कार्ल कोरेंस (Karl Correns) एवं ऑस्ट्रिया के एरिक वोन शेरमार्क (Eric Von Tschermark) के अलग अलग प्रयोगों में मेण्डल के जैसे ही परिणाम प्राप्त हुए जिससे मेण्डल के भूले हुए कार्यों को प्रमाणिकता मिली।
मटर के पादप का चयन (Selection of pea plant) मेण्डल ने अपने प्रयोगों के लिए उद्यान मटर पादप का चयन किया क्योंकि –
1. एकवर्षीय (Annual) पादप होने के कारण कम समय में अनेक पीढ़ियों का अध्ययन किया जाना सम्भव था। इसे सरलता से उद्यान में अथवा किसी गमले में भी उगाया जा सकता है।
ii. द्विलिंगी पुष्प (Bisexual flowers) होने के कारण स्वपरागण (Self pollination) के द्वारा समयुग्मजी (Homozygous) पादप अथवा शुद्ध वंशक्रम (Pure line) सरलता से प्राप्त किया जा सकता है।
iii. विपुंसन (Emasculation) विधि द्वारा कृत्रिम परपरागण (Artificial cross pollination) आसानी से किया जा सकता है।
मटर एक स्वपरागण (Self Pollination) वाला पादप है, क्योंकि इसके पुष्प की संरचना इस प्रकार की होती है जिससे इसके पराग (Pollen) उसी पुष्प के वर्तिकाग्र पर गिरते हैं और स्वपरागण/स्वनिषेचन करते हैं। स्वपरागण को रोकने के लिए मेण्डल, पुष्प की कली खोलकर वर्तिकाग्र (Stigma) को परिपक्क होने से पहले ही उसके पुंकेसर (Stamen) को हटा देते थे। इस प्रक्रिया को विपुंसन (Emasculation) कहा जाता है।
iv. मटर के पौधे में विभिन्न विपर्यासी लक्षणों (34) के जोड़े पाये जाते हैं।
मेण्डल के वंशागति के नियम (Mendel’s laws of inheritance)
मेण्डल ने उद्यान मटर (Pisum sativum) पर संकरण प्रयोगों के द्वारा कुछ महत्वपूर्ण नियमों का प्रतिपादन किया, जिन्हें मेण्डल के वशांगति या आनुवंशिकता के नियम कहते हैं।
ये नियम निम्नलिखित हैं-
1. प्रभाविता का नियम (Law of dominance)
2. पृथक्करण का नियम या युग्मकों की शुद्धता का नियम (Law of segregation or Law of purity of gametes)
3. स्वतन्त्र अपव्यूहन का नियम (Law of independent assortment)
1. प्रभाविता का नियम (Law of dominance)-
मेण्डल द्वारा किये गये मटर के एक संकरण प्रयोगों से प्राप्त F. पीढ़ी में केवल एक प्रकार के लक्षण वाले पौधे ही प्राप्त हुए। यदि लम्बे पौधे का बौने पौधे से संकरण करवाया जाये तो केवल लम्बे पौधे प्राप्त होते हैं। अर्थात् लम्बाई वाले लक्षण ने बौने वाले लक्षण को मटर के पौधे में प्रकट नहीं होने दिया। अतः लम्बाई वाले लक्षण को प्रभावी (Dominant character) एवं बौनेपन वाले लक्षण को अप्रभावी लक्षण (Recessive) कहा गया। इसी प्रयोग के परिणाम को मेण्डल ने “प्रभाविता का नियम” कहा।
यह नियम जीवों के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण है। मनुष्य में मंदबुद्धि, मधुमेह, वर्णान्धता आदि आनुवंशिक रोगों के जीन अप्रभावी होते हैं। प्रभावी जीन की उपस्थिति में यह प्रकट नहीं हो पाते है जिसके फलस्वरूप मनुष्य सामान्य होता है।
2. पृथक्करण का नियम / विसंयोजन का नियम या युग्मकों की शुद्धता का नियम (Law of segregation or Law of purity of gametes)
मेण्डल ने अपने एक संकर संकरण के प्रयोगों के परिणाम के आधार पर युग्मकों की शुद्धता का नियम अथवा विसंयोजन का नियम प्रतिपादित किया।
एक संकर संकरण के प्रयोगों में F, पीढ़ी में एक समान, संकर लम्बे पौधे प्राप्त होते हैं जबकि F. पीढ़ी में स्वनिषेचन के पश्चात जनक पौधों के समान लम्बे व बौने पौधे प्राप्त होते हैं। F. पीढ़ी में लम्बे व बौनेपन के कारक एक साथ रहते हुए भी एक दूसरे के साथ सम्मिश्रित नहीं होते हैं अर्थात एक पर दूसरे का प्रभाव नहीं पड़ता है। ये कारक F. पीढ़ी में एक दूसरे से पृथक होते हुए 75% लम्बे पौधे तथा 25% बौने पौधे बनाते हैं। इस प्रकार युग्मक अपनी शुद्धता बनाये रखते हैं, इसे युग्मकों की शुद्धता का नियम कहते हैं व युग्मक निर्माण के समय दोनों युग्मविकल्पी (Tt) एक दूसरे से विसंयोजित (Segregate) होकर अलग-अलग युग्मकों में पहुँच जाते हैं व F. पीढ़ी में अप्रभावी लक्षण, बौनापन भी प्रकट हो जाता है। अतः इस प्रकार युग्मकों में प्रभावी तथा अप्रभावी कारकों का विसंयोजन या पृथक होना मेडल का विसंयोजन का नियम कहलाता है।
विसंयोजन के नियम का महत्व –
- इस नियम से जीन संकल्पना की पुष्टि होती है।
- जीन वेशागति की इकाई है जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में लक्षणों को संचारित करती है।
- जीवों में प्रत्येक लक्षण जीन द्वारा नियंत्रित होता है।
- प्रत्येक जीन के दो युग्म विकल्पी होते हैं जो एक जोड़ी विपर्यासी लक्षणों का नियंत्रण करते हैं।
- जीन के युग्म विकल्पी एक साथ रहते हुए भी समिश्रित नहीं होते हैं।
- युग्मक निर्माण के दौरान युग्म विकल्पी एक दूसरे से पृथक पृथक होकर अलग-अलग युग्मकों में जाते हैं।
3. स्वतंत्र अपव्यूहन का नियम (Law of Independent Assortment)
- यह नियम द्विसंकर तथा उच्च स्तर के संकरणों पर लागू होता है। एक संकर संकरण पर लागू नहीं होता है। मेण्डल द्वारा किये गए द्विसंकर तथा उच्च संकरण के प्रयोगों में जब दो या दो से अधिक विपर्यासी लक्षणों के मध्य संकरण करवाया जाता है तो प्रथम F. पीढ़ी में प्रभावी लक्षण वाले संयोग प्राप्त होते हैं परन्तु जब इनसे प्राप्त बीजों को उगाया जाता है एवं उनमें स्वनिषेचन करवाया जाता है तो वे एक दूसरे से प्रभावित हुए बिना, स्वतंत्र रूप से संतति में प्रकट होते हैं। अर्थात एक लक्षण की वंशागति का दूसरे लक्षण की उपस्थिति से किसी प्रकार का प्रभाव नहीं पड़ता है। इसी को स्वतंत्र अपव्यूहन का नियम कहते हैं।
- इस नियम के अनुसार युग्मविकल्पी के प्रत्येक युग्म के सदस्य न केवल पृथक होते हैं परन्तु विभिन्न लक्षणों के युग्मविकल्पी एक दूसरे के प्रति स्वतंत्र रूप से व्यवहार करते हैं। अर्थात एक से अधिक विपर्यासी लक्षणों के जीन एक दूसरे से प्रभावित हुए बिना एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्वतंत्र रूप से लक्षणों को ले जाते हैं।
- मेण्डल ने शुद्ध पीले व गोल बीज (YYRR) वाले पौधों का हरे व झुर्रीदार बीज (yyrr) वाले पौधों से संकरण करवाया तथा यह पाया की F. पीढ़ी में पीले व गोल बीज (YyRr) वाले पौधे प्राप्त हुए। F, पीढ़ी वाले पौधों में स्वपरागण के बाद चार प्रकार के पौधे निम्नानुसार अनुपात में प्राप्त हुएः- पीले व गोल बीज 9 पीले व झुर्रीदार बीज = 3 हरे व गोल बीज = 3 हरे व झुर्रीदार बीज = 1 उपरोक्त प्रयोग से यह स्पष्ट होता है कि पीले व गोल बीज एवं हरे व झुर्रीदार बीज वाले पौधों के पैतृक संयोग के अलावा दो नए संयोग पीले व झुर्रीदार बीज व हरे व गोल बीज वाले पौधे भी प्राप्त होते हैं, अर्थात ये कारक अथवा युग्मविकल्पी एक दूसरे को प्रभावित किये बिना युग्मकों के निर्माण में स्वतंत्र रूप से अपव्यूहित होते हैं। इसी को मेण्डल का स्वतंत्र अपव्यूहन का नियम कहते हैं।
मेण्डल के वंशागति के नियमों का महत्व (Importance of mendel’s law of inheritance)
1. सजीवों में प्रभाविता के लक्षण का पाया जाना अत्यन्त महत्वपूर्ण है क्योंकि अनेक हानिकारक एवं घातक जीन (Lethal gene) अप्रभावी होने के कारण प्रभावी जीन की उपस्थिति में अपने आपको अभिव्यक्त नहीं कर पाते है।
II. मेण्डल के पृथक्करण के नियम की प्रस्तुति से जीन संकल्पना (Gene concept) की पुष्टि होती है।
III. पृथक्करण के नियमानुसार एक जीन के दो युग्मविकल्पी होते हैं तथा ये दो विपर्यासी लक्षणों को नियंत्रित करते हैं।
IV. मेण्डल के नियमों से संकर सन्तति में उत्पन्न नये लक्षणों के बारे में पता चलता है।
V. संकरण विधि से अनुपयोगी लक्षणों को हटाया जा सकता है तथा उपयोगी लक्षणों को एक साथ एक ही जाती में लाया जा सकता है।
VI. मेण्डल के नियमों के उपयोग से रोग प्रतिरोधक तथा अधिक उत्पादन वाले फसली पौधों की किस्में विकसित की जा
सकती हैं।
VII. मानव जाति के सुधार सम्बन्धित विज्ञान की शाखा सुजननिकी (Eugenics) मेण्डलीय नियमों पर ही आधारित है